साहित्य का इतिहास दर्शन में विपर्यास हो गया, वास्तविक परिवृत्ति का प्रमाण नहीं है; हम ज्यादा से ज्यादा यही कह सकते हैं कि वे ही या समान मनोराग पहले वक्तृता और फिर गीति कविता में हुए थे, या कि दोनों के द्वारा एक ही या समान सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हुई । अभिव्यक्त इस प्रकार साहित्य के परिणमन और जन्म से मृत्यु तक की विकासमूलक प्रक्रिया के जैविक साम्य को, जिसे स्पॅग्लर और टाय्नवी ने इधर पुनरुज्जीवित किया है, अस्वीकार्य मानते हुए भी, ऐसा दीख पड़ता है कि दूसरे अर्थ में विकास ऐतिहासिक विकास के यथार्थ विभावन के निकट है । वह मानता है कि परिवत्तनों की श्रेणी मात्र का नहीं, अपितु इस श्रेणी के किसी लक्ष्य का निरूपण आवश्यक है । श्रेणी के विभिन्न अंश लक्ष्य की उपलब्धि के लिए आवश्यक साधन होते हैं। किसी निश्चित लक्ष्य ( उदाहरणार्थ, मनुष्य का मस्तिष्क) के प्रति विकास का विभावन परिवर्त्तनों के श्रेणी विशेष को आरंभ और अंत से युक्त एक यथार्थ सातत्य में परिणत कर देता है । फिर भी यह स्मरण रखना आवश्यक है कि जैविक विकास के दूसरे अर्थ और वास्तविक अर्थ में 'ऐतिहासिक विकास के बीच एक महत्त्वपूर्ण अंतर है। जैविक से पृथक् ऐतिहासिक विकास को समझने के लिए हमें, जैसे भी हो, इस बात में सफलता प्राप्त करनी होगी कि ऐतिहासिक घटना की विशिष्टता सुरक्षित रहे और साथ ही ऐतिहासिक प्रक्रिया क्रमिक किंतु असंबद्ध घटनाओं का संग्रह मात्र न बन जाय । इसका समाधान इस बात है कि ऐतिहासिक प्रक्रिया को किसी मूल्य या आदर्श (norm) से संबद्ध किया जाय । केवल तभी घटनाओं की ऊपर से निरर्थक लगनेवाली श्रेणी अपने तत्त्वभूत उपकरणों में विभक्त हो सकती है। ऐसी स्थिति में ही हम एक ऐसे ऐतिहासिक विकास की बात कर सकते हैं, जो घटना विशेष की वैयक्तिकता को अक्षुण्ण रहने दे । एक विशिष्ट यथार्थता को सामान्य मूल्य से संबद्ध कर, हम विशिष्ट को सामान्य विभावन के दृष्टांत के स्तर पर उतार नहीं लाते, बल्कि विशिष्ट को महत्त्व प्रदान करते हैं । इतिहास केवल सामान्य मूल्यों का विशेषीकरण नहीं करता, इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह असंबद्ध, निरर्थक विपर्यस्तता है - इसके विपरीत ऐतिहासिक प्रक्रिया मूल्य के निरंतर नये रूपों को उत्पन्न करती है, जो पहले ज्ञात और अग्रनिरूप्य नहीं थे । इस प्रकार मूल्यों के शिक्य के साथ विशिष्ट कृति की जो सापेक्षता है, वह इसके आवश्यक अंतस्संबंध के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । परिणमनों की श्रेणी का निर्माण मूल्यों या रूपों की योजना के प्रसंग में निर्मित करना आवश्यक है, किंतु ये मूल्य स्वयं इस प्रक्रिया के चिंतन से ही आविर्भूत होते । यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि एक तर्क- वृत्त बन गया है : ऐतिहासिक प्रक्रिया का निर्णय मूल्यों से करना पड़ेगा, जब कि मूल्यों का शिक्य ही इतिहास से प्राप्त होता है ! किंतु इससे बचना संभव नहीं है, अन्यथा हमें या तो परिवर्तन की निरर्थक विपर्यस्तता के भाव से संतोष कर लेना पड़ेगा, या फिर साहित्यंतर प्रतिमानों को व्यवहृत करना पड़ेगा -- ऐसे प्रतिमानों का, जो साहित्य की प्रक्रिया के बाहर के हैं। साहित्यिक विकास की समस्या का यह विवेचन अनिवार्यतः प्रणिधानात्मक हो गया ह । हमारा प्रयास यह सिद्ध करना रहा है कि साहित्य का विकास जैविक से भिन्न है, और कि किसी एक शाश्वत आदर्श की ओर समान रूप से अग्रसर होने के भाव से इसका कोई संबंध नहीं है । इतिहास मूल्यों की परिवर्त्तमान योजनाओं के प्रसंग में ही लिखा जा सकता है,
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