अध्याय ५ ४७ - जैवी दृष्टिकोण से विचार करने पर ये दोनों ही श्रेणियाँ पूर्णतः समान हैं; और १८०० के लगभग उत्पन्न एक जन-समूह ने साहित्यिक परिवर्तन को उतना प्रभावित किया है, जितना १८१५ के लगभग उत्पन्न समूह नहीं कर सका है, यह तथ्य विशुद्ध जैवी कारणों से भिन्न कारणों पर आश्रित है । यह् सत्य है कि साहित्यिक इतिहास के समय विशेष में प्रायः समान वय के युवकों का समूह साहित्यिक परिवर्त्तन लाने में समर्थ हो जाया करता है, उदाहरण के लिए अँगरेजी में रोमांटिसिज्म या हिंदी में छायावाद । किंतु, दूसरी ओर, यह भी सत्य है कि अधिक वय के लेखकों की प्रौढ़ कृतियों ने साहित्यिक परिवर्त्तनों को अत्यधिक प्रभावित किया है । कहने का तात्पर्य यह कि पीढ़ियों या सामाजिक वर्गों के परिवर्त्तन मात्र से साहित्यिक परिवर्तन का समाधान नहीं हो सकता । यह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न रूपोंवाली एक जटिल प्रक्रिया है । यह अंशतः आंतरिक प्रक्रिया है, जो क्लांति से और परिवर्तन की कामना से उद्भूत होती है, किंतु यह अंशतः बाह्य भी है, जो सामाजिक, बौद्धिक और अन्य सांस्कृतिक परिवर्तनों पर निर्भर रहती है । अँगरेजी के आधुनिक साहित्यिक इतिहास में व्यवहृत होनेवाले युग नामों को लेकर बहुत वाद-विवाद होता रहा है । रिनासाँ, क्लासिसिज्म, रोमांटिसिज्म, सिंवालिज्म और, इधर, बैरोक की अनेकानेक परिभाषाएँ हुई हैं और उनका खंडन-मंडन भी हुआ है। किंतु मतैक्य तब तक असंभव है जब तक उन सैद्धांतिक प्रश्नों का समाधान नहीं होता जिनका उल्लेख किया जा चुका है, और जब तक इस क्षेत्र में काम करनेवाले विद्वान् तर्कशास्त्रीय परिभाषाओं के लिए आग्रहं करते रहेंगे, या युग-नामों और प्रकार नामों का अंतर विस्मृत करते रहेंगे, या नामों के आकृतिमूलक इतिहास के साथ शैली के वास्तविक परिवर्त्तनों को उलझाते रहेंगे । इसीलिए लवज्वाय और अन्य विद्वानों ने 'रोमांटिसिज्म' जैसे नामों का परित्याग ही उचित बताया है । किंतु जहाँ यह ठीक है कि मात्र युग-नामों से बहुत अधिक की आशा नहीं की जा सकती, वहीं युग का विभावन ऐतिहासिक ज्ञान के प्रमुख साधनों में से एक है और उसके बिना काम चल नहीं सकता। और जब युग पर विचार होगा, तो साहित्यिक इतिहास के तरह-तरह के प्रश्न उठेंगे ही : उदाहरण के लिए, युग-नाम का इतिहास, विचार-धारा, वास्तविक शैलीगत परिवर्तन, मनुष्य के विभन्न क्रिया-कलाप के साथ युग का संबंध और अन्य देशों के समान युगों के साथ संबंध । अगर हम छायावाद को लें तो 'निराला' या पंत की नवीन विचार- धारा को ध्यान में रखते हुए उनकी तथा अन्य छायावादियों की काव्यात्मक उपलब्धि पर विचार करना आवश्यक होगा। फिर यह एक ऐसी नई शैली है, जिसके पूर्वाभास को प्राचीन साहित्य में निर्दिष्ट किया जा सकता है । फिर बँगला आदि की समान प्रवृत्तियों के साथ तथा चित्र कला प्रभृति की समानांतर विशेषताओं के साथ उसकी तुलना की जा सकती है । सारांश यह कि प्रत्येक समय और स्थान में समस्याएँ भिन्न होंगी और सामान्य नियमों की उद्भावना असंभव प्रतीत होती है । । साहित्यिक इतिहास में कभी-कभी समवेत रूप से एक राष्ट्रीय साहित्य की समस्या पर भी विचार किया गया है। किंतु कला के रूप में राष्ट्रीय साहित्य का प्रलेखन कठिन इसलिए है कि मूलतः असाहित्यिक प्रकरणों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है और राष्ट्रीय आदर्शों और विशेषताओं का विवेचन करना पड़ता है, जिनका साहित्य-कला से बहुत कम ही संबंध है।
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