से काम लेता था । स्वर्ग और नरक, पाप और पुण्य, उसके यन्त्र थे।
साहित्य हमारी सौदर्य-भावना को सजग करने की चेष्टा करता है । मनुष्य-
मात्र मे यह भावना होती है । जिसमे यह भावना प्रबल होती है, और
उसके साथ ही उसे प्रकट करने का सामर्थ्य भी होता है, वह साहित्य
का उपासक बन जाता है । यह भावना उसमे इतनी तीव्र हो जाती है
कि मनुष्य मे, समाज मे, प्रकृति मे, जो कुछ असुन्दर, असौम्य, असत्य
है, वह उसके लिए असह्य हो जाता है, और वह अपनी सौदर्यभावना से
व्यक्ति और समाज मे सुरुचिपूर्ण जागृति डाल देने के लिए व्याकुल
हो जाता है । यो कहिए कि वह मानवता का, प्रगति का, शराफत
का वकील है । जो दलित हैं, मर्दित हैं, ज़ख्मी हैं, चाहे वे व्यक्ति
हों या समाज उनकी हिमायत और वकालत उसकी धर्म है। उसकी
अदालत समाज है। इसी अदालत के सामने वह अपना इस्त-
गासा पेश करता है और अदालत की सत्य और न्याय-बुद्धि और उसकी
सौन्दर्य-भावना को प्रभावित करके ही वह सन्तोष प्राप्त करता है । पर
साधारण वकीलो की तरह वह अपने मुवक्किल की तरफ से जा और बेजा
दावे नहीं पेश करता, कुछ बढ़ाता नहीं, कुछ घटाता नहीं, न गवाहों
को सिखाता पढ़ाता है । वह जानता है, इन हथकण्डो से वह समाज
की अदालत मे विजय नही पा सकता । इस अदालत मे तो तभी सुन-
वाई होगी, जब आप सत्य से जौ-भर भी न हटे, नहीं अदालत उसके
खिलाफ फैसला कर देगी और इस अदालत के सामने वह मुवक्किल
का सच्चा रूप तभी दिखा सकता है, जब वह मनोविज्ञान की सहायता
ले । अगर वह खुद उसी दलित समाज का एक अग है, तब तो उसका
काम कुछ आसान हो जाता है क्योकि वह अपने मनोभावों का विश्ले-
षण करके अपने समाज की वकालत कर सकता है। लेकिन अधिकतर
वह अपने मुवक्किल की आन्तरिक प्रेरणाश्रो से, उसके मनोगत भावों से
अपरिचित होता है । ऐसी दशा मे उसका पथ-प्रदर्शक मनोविज्ञान के
सिवा कोई और नहीं हो सकता । इसलिए साहित्य के वर्तमान युग को
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साहित्य और मनोविज्ञान