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फिल्म और साहित्य


विशेष तृप्ति हो ।वही सन्जन,जो सिनेमा की कुरुचि की शिकायत करते फिरते है, ऐसे तमाशो मे सबसे पहले बैठे नजर आते है। साधु तो गली गली भीख माँगते है पर वेश्याश्रो को भीख मांगते किसी ने न देखा होगा। इसका आशय यह नहीं कि ये भिखमगे साधु वेश्याश्रो से ऊँचे है-लेकिन जनता की दृष्टि मे वे श्रद्धा के पात्र है। इसीलिये हर एक सिनेमा प्रोडयूसर, चारे वह समाज का कितना बडा हितैषी क्यो न हो, तमाशे मे नीची मनोवृत्तियो के लिए काफी मसाला रखता है नही तो उसका तमाशा ही न चले । बम्बई के एक प्रोड्यूसर ने ऊँचे भावो से भरा हुअा एक खेल तैयार किया, मगर बहुत हाय हाय करने पर भी जनता उसकी ओर आकर्षित न हुई । 'पास' के अन्धाधुन्ध वितरण से रुपये तो नहीं मिलते । आमन्त्रित सज्जनो और देवियों ने तमाशा देखकर मानो प्रोड्यूसर पर एहसान किया और बखान करके मानो उसे मोल ले लिया । उसने दूसरा तमाशा जो तैयार किया, वह वही बाजारू ढग का और वह खूब चला। पहले तमाशे से जो घाटा हुआ था, वह इस दूसरे तमाशे से पूरा हो गया। जिस शौक से लोग शराब और ताडी पीते है, उसके आधे शौक से दूध नहीं पीते । 'साहित्य' दूध होने का दावेदार है, सिनेमा, ताड़ी या शराब की भूख को शान्त करता है। जब तक साहित्य अपने स्थान से उतर कर और अपना चोला बदलकर शराब न बन जाय, उसका वहाँ निर्वाह नहीं। साहित्य के सामने अादर्श है, सयम है, मर्यादा है। सिनेमा के लिये इसमे से किसी वस्तु की जरूरत नही । सेंसर बोर्ड के नियन्त्रण के सिवा उस पर कोई नियन्त्रण नहीं । जिसे साहित्य की 'सनक' है वह कभी कुरुचि की ओर जाना स्वीकार न करेगा। मर्यादा की भावना उसका हाथ पकड़े रहती है, इसलिए हमारे साहित्यकार के लिये, जो सिनेमा मे हैं, वहाँ केवल इतना ही काम है कि वे डाइरेक्टर साहब के लिखे हुए गुजराती, मराठी या अग्रेजी कथोपकथन को हिन्दी मे लिख दे । डाइ- रेक्टर जानता है कि सिनेमा के लिए जिस 'रचना कला' की जरूरत