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साहित्य का उद्देश्य


भी जनता की श्रद्धा के पात्र है । यहा आप जनता की इस श्रद्धा को अपने समर्थन मे आगे क्यो रखते है।

आपने जो साहित्य के उद्देश्य गिनाये है, उन्हे पूरा करने मे सिनेमा साहित्य से कही आगे जाने की क्षमता रखता है । यूटिलिटी के दृष्टिकोण से सिनेमा साहित्य से कही अधिक ग्राह्य है; लेकिन यह सब होते हुए भी सिनेमा की उपयोगिता कुपात्रो के हाथो मे पड़कर दुरुपयोगिता मे परिणत हो रही है। इसमे दोष सिनेमा का नही, उनका है जिनके हाथ मे इसकी बागडोर है । इनसे भी अधिक उनका है जो इस चीज को बर्दाश्त करते है। बर्दाश्त करना भी बुरा नही होता, यदि इसके साथ मजबूरी की शर्त न लगी होती।

गले मे जयमाल पड़ने वाली बात भी बड़े मजे की है-'कितने ही साहित्यिको ने निशाने लगाये पर शायद ही कोई मछली बेध पाया हो। जयमाल गले मे कैसे पडती ?' बहुत खूब । जिस चीज़ के लिए साहित्यिको ने सिनेमा पर निशाने लगाये, वह चीज क्या उन्हे नहीं मिली-अपवाद को छोडकर ? आप या कोई और साहित्यिक यह बताने की कृपा करेंगे कि सिनेमा मे प्रवेश करने वाले साहित्यिको मे से ऐसा कौन है, जिसके सिनेमा प्रवेश का मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रग' मे रगना रहा हो ? क्या किसी भी साहित्यिक ने सिन्सीयरली इस ओर कुछ काम किया है ? फिर जयमाल गले मे कैसे पडती ? माना कि साहित्य संसार मे जयमाल और सम्राट की उपाधियाँ टके सेर बिकती हैं। लेकिन सभी जगह तो इन चीजो का यही भाव नहीं है । पहले सिनेमा- जगत को कुछ दीजिए, या यो ही गले मे जयमाल पड़ जाये ? या सिर्फ साहित्यिक होना ही गले मे जयमाल पड़ने क! क्वालिफिकेशन है ?

आप बम्बई मे रह चुके हैं। सिनेमा-जगत की आपने झाकी भी ली है। आपको यह बताने की आवश्यकता नहीं कि हमारे साहित्यिक भी, अपनी फिल्मो मे निर्दिष्ट रुचि का समावेश करने मे किसी से पीछे नहीं रहे हैं । या कहे कि आगे ही बढ़ गये है। औरो को छोड़ दीजिए, वे