जायगा । वही लोग, जो साहित्य मे आदर्श को सृष्टि करते हैं सिनेमा
में दो दो सौ वेश्याओं का नगा नाच करवाते है । क्यों ? इसीलिए कि
वे ऐसे धन्धे मे पड़ गये है, जहाँ बिना नगा नाच नचाये धन से भेंट
नहीं होती । मै आदर्शों को लेकर गया था, लेकिन मुझे मालूम हुआ
कि सिनेमा वालो के पास बने-बनाये नुस्खे हैं, और श्राप उस नुस्खे के
बाहर नहीं जा सकते । वहाँ प्रोड्यूसर यह देखता है कि जनता किस
बात पर तालियों बजाती है । वही बात वह अपने फिल्म मैं
लायेगा । अन्य विचार उसके लिए ढकोसले है, जिन्हें वह
सिनेमा के दायरे के बाहर समझता है। और फिर सारा भेद तो
एसोसिएशन का है । वेश्या के मुख से वैराग्य या निर्गुण सुनकर कोई
तर नहीं जाता । रही उपाधियों के टके सेर की बात। हमारे खयाल मे
सिनेमा मे वह इससे कहीं सस्ती है जहाँ अच्छे वेतन पर लोग इसीलिए
नौकर रखे जाते हैं, जो अपने ऐक्टरों और ऐक्ट्रेसों की तारीफ मे
जमीन आसमान के कुलाबे मिलायें ।
मैं यह नहीं कहता कि होली या कजली त्याज्य हैं और जो लोग होली
या कजली गाते है वह नीच हैं और जिन भावो से प्रेरित होकर होली और
कजली का सुजन होता है वह मूल रूप मे साहित्य की प्रेरक भावनाओं से
अलग है । फिर भी वे साहित्य नहीं हैं । पत्र-पत्रिकाओ को भी साहित्य
नहीं कहा जाता । कभी कभी उनमे ऐसी चीजे निकल जाती हैं, जिन्हे
हम साहित्य कह सकते हैं। इसी तरह होली और कजली मे भी कभी-
कभी अच्छी चीजे निकल जाती है, और वह साहित्य का अंग बन जाती
हैं। मगर आम तौर पर ये चीजें अस्थायी होती है और साहित्य मे जिस
परिष्कार, मौलिकता, शैली, प्रतिभा, विचार गम्भीरता की जरूरत होती
है, वह उनमे नहीं पाई जाती । देहातों में दीवारो पर औरते जो चित्र
बनाती है, अगर उसे चित्रकला कहा जाय तो शायद ससार मे एक भी
ऐसा प्राणी न निकले जो चित्रकार न हो । साहित्य भी एक कला है
और उसकी मर्यादाएँ हैं । यह मानते हुए भी कि श्रेष्ठ कला वही है जो