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साहित्य का उद्देस्य

आसानी से समझी और चखी जा सके, जो सुबोध और जनप्रिय हो, उसमे ऊपर लिखे हुए गुणों का होना लाजमी है । आपने सिनमा-जगत मे जिन अपवादो के नाम लिये हैं, उनकी मैं भी इज्जत करता हूँ और उन्हें बहुत गनीमत समझता हूँ; मगर वे अपवाद हैं, जो नियम को सिद्ध करते है । और हम तो कहते है इन अपवादो को भी व्यापारिकता के सामने सिर झुकाना पडा है । सिनेमा मे एंटरटेनमेन्ट वैलू साहित्य के इसी अंग से बिलकुल अलग है । साहित्य मे यह काम शब्दो, सूक्तियों या विनोदों से लिया जाता है । सिनेमा मे वही काम, मारपीट, धर पकड़, मुंह चिढाने और जिस्म को मटकाने से लिया जाता है।

रही उपयोगिता की बात । इस विषय मे मेरा पक्का मत है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से सभी कला उपयोगिता के सामने घुटना टेकती है। प्रोपेगेन्डा बदनाम शब्द है; लेकिन आज का विचारोत्पादक, बलदायक, स्वास्थ्यवर्द्धक साहित्य प्रोपेगेन्डा के सिवा न कुछ है, न हो सकता है, न होना चाहिए, और इस तरह के प्रोपेगेन्डे के लिए साहित्य से प्रभाव- शाली कोई साधन ब्रह्मा ने नहीं रचा वर्ना उपनिषद् और बाइबिल दृष्टान्तो से न भरे होते ।

सेक्स अपील को हम हौवा नहीं समझते, दुनिया उसी धुरी पर कायम लेकिन शराबखाने मे बैठ कर तो कोई दूध नहीं पीता । सेक्स अपील की निन्दा तब होती है, जब वह विकृत रूप धारण कर लेती है। सुई कपडे मे चुभती है, तो हमारा तन ढंकती है, लेकिन देह मे चुभे तो उसे जख्मी कर देगी । साहित्य मे भी जब यह अपील सीमा से आगे बढ़ जाती है, तो उसे दूषित कर देती है। इसी कारण हिन्दी प्राचीन कविता का बहुत बड़ा भाग साहित्य का कलक बन गया है। सिनेमा मे वह अपील और भी भयंकर हो गई है, जो संयम और निग्रह का उप- हास है। हमें विश्वास नहीं आता कि आप आजकल के मुक्त प्रेम के अनुयायी हैं। उसे प्रेम कहना तो प्रेम शब्द को कलंकित करना है। उसे तो छिछोरापन ही कहना चाहिए।