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साहित्य का उद्देश्य


अधिकाश मे खाली रहते थे,और उन दिनो जो चित्र दिखाये गये, उनमें घाटा ही रहा । इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि जनता के विषय मे जो खयाल है कि वह मारकाट और सनसनी पैदा करने वाली और शोर गुल से भरी हुई तस्वीरो को ही पसन्द करती है, वह भ्रम है । जनता प्रेम और त्याग और मित्रता और करुणा से भरी हुई तस्वीरो को और भी रुचि से देखना चाहती है, मगर हमारे सिनेमा- वालो ने पुलिसवालो की मनोवृत्ति से काम लेकर यह समझ लिया है कि केवल भद्दे मसखरेपन और अँडैती ओर बलात्कार और सौ फीट की ऊँचाई से कूदने, झूठमूठ टीन की तलवार चलाने मे ही जनता को आनन्द आता है और कुछ थोड़ा-सा आलिंगन और चुम्बन तो मानो सिनेमा के लिए उतना ही जरूरी है जितना देह के लिए ऑखें । बेशक जनता वीरता देखना चाहती है। प्रेम के दृश्यों से भी जनता को रुचि है, लेकिन यह ख्याल करना कि आलिंगन और चुम्बन के बिना प्रेम का प्रदर्शन हो ही नहीं सकता, और केवल नकली तलवार चलाना ही जवॉमर्दी है, और बिना जरूरत गीतो का लाना सुरुचि है, और मन और कर्म की हिंसा मे ही जनता को अानन्द आता है. मनोविज्ञान का बिलकुल गलत अनुमान है। कहा जाता है कि, शेक्सपियर के शब्दों मे, जनता अबोध बालक है । और वह जिन बातों पर एकान्त मे बैठकर घृणा करती है, या जिन घटनाओं को अनहोनी समझती है, उन्हीं पर सिनेमा हाल मे बैठकर उल्लास से तालियाँ बजाती है। इस कथन मे सत्य है । सामूहिक मनोविज्ञान की यह विशेषता अवश्य है। लेकिन अबोध बालक को क्या माँ की गोद पसन्द नहीं ? जनता नग्नता और फक्कड़ता और भंडैती ही पसन्द करती है, उसे चूमा-चाटी और बलात्कार में ही मजा आता है, तो क्या उसकी इन्हीं आवश्यकताओं को मजबूत बनाना हमारा काम है ? व्यवसाय को भी देश और समाज के कल्याण के सामने झुकना पड़ता है। स्वदेशी आन्दोलन के समय मे किसकी हिम्मत थी जो बिज़नेस इज़ बिज़नेस की दुहाई देता ? बिज़नेस