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सिनेमा और जीवन


कलाओ का यही ध्येय रहा है कि आदमी में जो पशुत्व है उसका दमन करके, उसमे जा देवत्व है, उसको जगाया जाय । उसमे जो निम्न भावनाएँ हैं उनको दबाकर या मिटाकर कोमल और सुन्दर वृत्तियो को सचेत किया जाय । साहित्य और काव्य मे भी ऐसे समय आये हैं, और आते रहते है, जब सुन्दर का पक्ष निर्बल हो जाता है और वह असुन्दर, वीभत्स और दुर्वासना का राग अलापने लगता है। लेकिन जब ऐसा समय आता है तो हम उसे पतन का युग कहते हैं। इसी उद्देश्य से साहित्य और कला मे केवल मानव जीवन की नकल करने को बहुत ऊँचा स्थान नही दिया जाता और आदशों की रचना करनी पड़ती है । आदर्शवाद का ध्येय यही है कि वह सुन्दर और पवित्र की रचना करके मनुष्य मे जो कोमल और ऊँची भावनाएँ है, उन्हे पुष्ट करे और जीवन के सस्कारो से मन और हृदय मे जो गर्द और मैल जम रहा हो उसे साफ कर दे । किसी साहित्य की महत्ता की जाच यही है कि उसमे आदर्श चरित्रो की सृष्टि हो । हम सब निर्बल जीव हैं, छोटे-छोटे प्रलोभनों में पड़कर हम विचलित हो जाते है, छोटे-छोटे सकटों के सामने हम सिर झुका देते हैं। और जब हमे अपने साहित्य में ऐसे चरित्र मिल जाते हैं, जो प्रलोभनो को पैरो तले रौदते और कठिनाइयों को धकियाते हुए निकल जाते हैं, तो हमे उनसे प्रेम हो जाता है, हममें साहस का जागरण होता है और हमे अपने जीवन का मार्ग मिल जाता है।

अगर सिनेमा इसी आदर्श को सामने रखकर अपने चित्रों की सृष्टि करता, तो वह आज ससार की सबसे बलवान सचालक शक्ति होता, मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के ऊँचे आसन से खाँचकर ताड़ी या शराब की दुकान की सतह तक पहुंचा दिया है, और यही कारण है कि अब सर्वत्र यह अान्दोलन होने लगा है कि सिनेमा पर नियन्त्रण रखा जाय और उसे मनुष्य की पशुताओ को उत्तेजन देने की कुप्रवृत्ति से रोका जाय ।'

जिस जमाने मे बम्बई मे कांग्रेस का जलसा था, सिनेमा हाल