मुबालगा न होगा ।किसी अन्य प्रान्त मे इतना अच्छा सगठन हो सकता
है और इतने अच्छे कार्यकर्ता मिल सकते है, इसमे मुझे सन्देह है !
जिन दिमागो ने अंग्रेजी राज्य की जड़ जमाई, जिन्होने अंग्रेजी भाषा का
सिक्का जमाया, जो अंग्रेजी आचार-विचार मे भारत मे अग्रगण्य थे और
हैं, वे लोग राष्ट्र भाषा के उत्थान पर कमर बाँध ले, तो क्या कुछ नहीं
कर सकते ? ओर यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है कि जिन दिमागो
ने एक दिन विदेशी भाषा मे निपुण होना अपना ध्येय बनाया था, वे
आज राष्ट्र-भाषा का उद्वार करने पर कमर कसे नजर आते है और
जहाँ से मानसिक पराधीनता की लहर उठी थी, वहाँ से राष्ट्रीयता की
तरंगे उठ रही है। जिन लोगो ने अंग्रेजी लिखने और बोलने मे अग्रेजो
को भी मात कर दिया, यहाँ तक कि आज जहाँ कही देखिये अँग्रेजी पत्रों
के सम्पादक इसी प्रान्त के विद्वान् मिलेगे, वे अगर चाहे तो हिन्दी बोलने
और लिखने मे हिन्दी वालो को भी मात कर सकते है। और गत वर्ष
यात्रीदल के नेताओ के भाषण सुनकर मुझे यह स्वीकार करना पड़ता
है कि वह क्रिया शुरू हो गयी है। 'हिन्दी-प्रचारक' मे अधिकाश लेख
आप लोगो ही के लिखे होते है और उनकी मॅजी हुई भाषा और सफाई
और प्रवाह पर हममे से बहुतो को रश्क आता है। और यह तब है
जब राष्ट्र-भाषा प्रेम अभी दिलो के ऊपरी भाग तक ही पहुंचा है,और आज
भी यह प्रान्त अँग्रेजी भाषा के प्रभुत्व से मुक्त होना नही चाहता । जब
यह प्रेम दिलो मे व्याप्त हो जायगा, उस वक्त उसकी गति कितनी तेज
होगी, इसका कौन अनुमान कर सकता है ? हमारी पराधीनता का सबसे
अपमानजनक, सबसे व्यापक, सबसे कठोर अग अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व
है । कही भी वह इतने नंगे रूप मे नही नजर आती । सभ्य जीवन के
हर एक विभाग मे अंग्रेजी भाषा ही मानो हमारी छाती पर मूंग दल रही
है । अगर आज इस प्रभुत्व को हम तोड़ सके, तो पराधीनता का अाधा
बोझ हमारी गर्दन से उतर जायगा । कैदी को बेड़ी से जितनी तकलीफ
होती है, उतनी और किसी बात से नही होती। कैदखाना शायद उसके
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