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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएॅ


घर से ज्यादा हवादार, साफ-सुथरा होगा। भोजन भी वहाँ शायद घर के भोजन से अच्छा और स्वादिष्ट मिलता हो । बाल-बच्चों से वह कभी- कभी स्वेच्छा से बरसो अलग रहता है । उसके दण्ड की याद दिलाने- वाली चीज यही बेडी है, जो उठते-बैठते, सोते-जागते, हँसते-बोलते,कभी उसका साथ नहीं छोडती, कभी उसे मिथ्या कल्पना भी करने नहीं देती, कि वह आजाद है। पैरो से कही ज्यादा उसका असर कैदी के दिल पर होता है, जो कभी उभरने नहीं पाता, कभी मन की मिठाई भी नही खाने पाता । अंग्रेजी भाषा हमारी पराधीनता की वही बेडी है, जिसने हमारे मन और बुद्धि को ऐसा जकड़ रखा है कि उनमे इच्छा भी नही रही। हमारा शिक्षित समाज इस बेड़ी को गले का हार समझने पर मजबूर है । यह उसकी रोटियो का सवाल है और अगर रोटियो के साथ कुछ सम्मान, कुछ गौरव, कुछ अधिकार भी मिल जाय, तो क्या कहना! प्रभुता को इच्छा तो प्राणी-मात्र में होती है । अंग्रेजी भाषा ने इसका द्वार खोल दिया और हमारा शिक्षित समुदाय चिडियो के झुण्ड की तरह उस द्वार के अन्दर घुसकर जमीन पर बिखरे हुए दाने चुगने लगा और अब कितना ही फडफडाये, उसे गुलशन को हवा नसीब नही । मजा यह है कि इस मुएड की फड़फडाहट बाहर निकलने के लिए नही, केवल जरा मनोरजन के लिए है। उसके पर निर्जीव हो गये, और उनमे उड़ने की शक्ति नही रही, वह भरोसा भी नही रहा कि यह दाने बाहर मिलेगे भी या नहीं । अब तो वही कफ़स है, वही कुल्हिया है और वही सैयाद ।

लेकिन मित्रो, विदेशी भाषा सीखकर अपने गरीब भाइयो पर रोब जमाने के दिन बड़ी तेजी से विदा होते जा रहे है। प्रतिभा का और बुद्धिबल का जो दुरुपयोग हम सदियो से करते आये हैं, जिसके बल पर हमने अपनी एक अमीरशाही स्थापित कर ली है, और अपने को साधा- रण जनता से अलग कर लिया है, वह अवस्था अब बदलती जा रही है । बुद्धि-बल ईश्वर की देन है, और उसका धर्म प्रजा पर धौस जमाना