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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएॅ


साइज से ज्यादा महत्त्व नही रखती। अभी दो-तीन दिन हुए पजाब के ग्रेजुएटो की अग्रेजी योग्यता पर वहाँ के परीक्षको ने यह आलोचना की है कि अधिकाश छात्रो मे अपने विचारो के प्रकट करने की शक्ति नहीं है, बहुत तो स्पेलिग मे गलतियों करते है। और यह नतीजा है कम से कम बारह साल तक ऑखे फोडने का । फिर भी हमारे लिए शिक्षा का अग्रेजी माध्यम जरूरी है, यह हमारे विद्वानों की राय है। जापान, चोन और ईरान मे तो शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं है। फिर भी वे सभ्यता की हरेक बात मे हमसे कोसो आगे है, लेकिन अंग्रेजी माध्यम के बगैर हमारी नाव डूब जायगी। हमारे मारवाड़ी भाई हमारे धन्यवाद के पात्र है कि कम से कम जहाँ तक व्यापार मे उनका सम्बन्ध है। उन्होंने कौमियत की रक्षा की है।

मित्रो, शायद मै अपने विषय से बहक गया हूँ, लेकिन मेरा आशय केवल यह है कि हमे मालूम हो जाय, हमारे सामने कितना महान् काम है। यह समझ लीजिये कि जिस दिन आप अग्रेजी भाषा का प्रभुत्व तोड देगे और अपनी एक कौमी भाषा बना लेगे, उसी दिन आपको स्वराज्य के दर्शन हो जायेंगे । मुझे याद नहीं आता कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के बल पर स्वाधीनता प्राप्त कर सका हो । राष्ट्र की बुनि- याद राष्ट्र को भापा है । नदी, पहाड़ समुद्र और राष्ट्र नहीं बनाते । भाषा ही वह बन्धन है, जो चिरकाल तक राष्ट्र को एक सूत्र मे बाँधे रहती है, और उसका शीराजा बिखरने नही देती । जिस वक्त अग्रेज आये, भारत की राष्ट्र-भावना लुप्त हो चुकी थी। यो कहिये कि उसमे राजनैतिक चेतना की गंध तक न रह गयी थी। अग्रेजी राज ने आकर आपको एक राष्ट्र बना दिया। आज अग्रेजी राज विदा हो जाय-और एक न एक दिन तो यह होना ही है तो फिर आपका यह राष्ट्र कहाँ जायगा ? क्या यह बहुत सभव नही है कि एक-एक प्रान्त एक-एक राज्य हो जाय और फिर वही विच्छेद शुरू हो जाय ? वर्तमान दशा मे तो हमारी कौमी चेतना को सजग और सजीव रखने के लिए अंग्रेजी राज को अमर