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साहित्य का उद्देश्य

नही, उसका खून चूसना नही, उसकी सेवा करना है। आज शिक्षित समुदाय पर से जनता का विश्वास उठ गया है । वह उसे उससे अधिक विदेशी समझती है, जितना विदेशियो को । क्या कोई आश्चर्य है कि यह समुदाय अाज दोनो तरफ से ठोकरे खा रहा है ? स्वामियो की ओर से इसलिये कि वह समझते है-मेरी चौखट के सिवा इनके लिए और कोई आश्रय नही, और जनता की ओर से इसलिए कि उनका इससे कोई अात्मीय सम्बन्ध नहीं। उनका रहन-सहन, उनकी बोल-चाल, उनकी वेश-भूषा, उनके विचार और व्यवहार सब जनता से अलग है और यह केवल इसलिए कि हम अग्रेजी भाषा के गुलाम हो गये। मानो परिस्थिति ऐसी है कि बिना अग्रेजी भाषा की उपासना किये काम नही चल सकता । लेकिन अब तो इतने दिनो के तजरवे के बाद मालूम हो जाना चाहिये कि इस नाव पर बैठकर हम पार नहीं लग सकते, फिर हम क्यो आज भी उसी से चिमटे हुए है १ अभी गत वर्ष एक इटर- युनिवर्सिटी कमीशन बैठा था कि शिक्षा सम्बन्धी विषयो पर विचार करे। उसमे एक प्रस्ताव यह भी था कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी की जगह पर मातृ-भाषा क्यो न रखी जाय । बहुमत ने इस प्रस्ताव का विरोध किया, क्यो ? इसलिए कि अग्रेजी माध्यम के बगैर अग्रेजी मे हमारे बच्चे कच्चे रह जायेंगे और अच्छी अंग्रेजी लिखने और बोलने मे समर्थ न होगे । मगर इन डेढ़ सौ वर्षों की घोर तपस्या के बाद आज तक भारत ने एक भी ऐसा ग्रन्थ नही लिखा, जिसका इगलैण्ड मे उतना भी मान होता, जितना एक तीसरे दर्जे के अग्रेजी लेखक का होता है । याद नहीं, पण्डित मदनमोहन मालवीयजी ने कहा था, या सर तेजबहादुर सपू ने, कि पचास साल तक अंग्रेजी से सिर मारने के बाद आज भी उन्हे अग्रेजी मे बोलते वक्त यह सशय होता रहता है कि कहीं उनसे गलती तो नही हो गयी ! हम अॉखे फोड़-फोड़कर और कमर तोड-तोडकर और रक्त जला-जलाकर अंग्रेजी का अभ्यास करते है, उसके मुहावरे रटते है; लेकिन बड़े से बडे भारती-साधक की रचना विद्यार्थियो की स्कूली एक्सर-