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साहित्य का उद्देश्य


के चने चबाना है । वही शब्द सरल है, जो व्यवहार मे आ रहा है, इससे कोई बहस नहीं कि वह तुर्को है, या अरबी, या पुर्तगाली। उर्द और हिन्दी मे क्यो इतना मौतिया डाह है, यह मेरी समझ में नहीं आता। अगर एक समुदाय के लोगो को 'उर्दू' नाम प्रिय है तो उन्हे उसका इस्तेमाल करने दोजिए । जिन्हे 'हिन्दी' नाम से प्रेम है, वह हिन्दी ही कहे । इसमे लडाई काहे को ? एक चीज के दो नाम देकर ख्वामख्वाह आपस मे तडना ओर उसे इतना महत्व दे देना कि वह राष्ट्र की एकता मे बाधक हो जाय, यह मनोवृत्ति रोगो ओर दुर्बल मन की है। मैं अपने अनुभव से इतना अवश्य कह सकता हूँ, कि उर्दू को राष्ट्र-भाषा के स्टैण्डर्ड पर लाने में हमारे मुसलमान भाई हिन्दुओ से कम इच्छुक नही हैं। मेरा मतलब उन हिन्द-मुसलमानों से है, जो कौमियत के मतवाले है । कट्टर पन्थियो से मेरा कोई प्रयोजन नही । उर्दू का योर मुसलिम संस्कृति का कैम्प आज अलीगढ़ है। वहाँ उर्दू और फारसी के प्राफेसरो और अन्य विषयो के प्राफेसरा से मेरी जो बातचीत हुई, उससे मुझे मालूम हुआ कि मौलवियाऊ भाषा से वे लोग भी उतने ही बेजार है, जितने पाए इताऊ भाषा से, और कौमी भाषा-सघ आन्दोलन में शरीक होने के लिए दिल से तैयार है। मै यह भी माने लेता हूँ कि मुसलमानो का एक गिरोह हिन्दुओ से अलग रहने मे ही अपना हित समझता है हालाकि उस गिरोह का जोर और असर दिन- दिन कम होता जा रहा है--ओर वह अपनी भाषा को अरबी से गले तक ठूस देना चाहता है, तो हम उससे क्यो झगडा करे ? क्या आप समझत है, ऐसो जटिल भाषा मुसलिम जनता मे भी प्रिय हो सकती है ? कभी नही । मुसलमानो मे वही लेखक सर्वोपरि है, जो अामफहम भाषा लिखते है। मौलवियाऊ भापा लिखनेवालो के लिए वहाँ भी स्थान नही है । मुसलमान दोस्तो से भी मुझे कुछ अर्ज करने का हक है क्योकि मेरा सारा जीवन उर्दू की सेवकाई करते गुजरा है और भी मै जितनी उर्दू लिखता हूँ, उतनी हिन्दी नही लिखता, और कायस्थ होने