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साहित्य का उद्देश्य


उनकी दुनिया अलग है, उन्होने उपजीवियो की मनोवृत्ति पैदा कर ली है। काश उनमे भी राष्ट्रीय चेतना होती, काश वे भी जनता के प्रति अपने कर्त्तव्य को महसूस करते, तो शायद हमारा काम सरल हो जाता। जिस देश मे जन शिक्षा की सतह इतनी नीची हो, उसमे अगर कुछ लोग अँगरेजो मे अपनी विद्वत्ता का सेहरा बॉध ही ले, तो क्या? हम तो तब जाने, जब विद्वत्ता के साथ साथ दूसरों को भी ऊँची सतह पर उठाने का भाव मौजूद हो । भारत मे केवल अंग्रेजीदों ही नहीं रहते । हजार मे ६६६ आदमी अंग्रेजी का अक्षर भी नही जानते । जिस देश का दिमाग विदेशी भाषा मे सोचे और लिखे, उस देश को अगर संसार राष्ट्र नही ममझता तो क्या वह अन्याय करता है ? जब तक आपके पास राष्ट्र भाषा नहीं, आपका कोई राष्ट्र भी नहीं । दोनो में कारण और कार्य का सम्बन्ध है । राजनीति के माहिर अँग्रेज शासको को आप राष्ट्र की हॉक लगाकर धोखा नही दे सकते । वे आपकी पोल जानते हैं और आप के साथ वैसा ही व्यवहार करते है।

अब हमे यह विचार करना है कि राष्ट्र-भाषा का प्रचार कैसे बढ़े। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि हमारे नेताओ ने इस तरफ मुजरिमाना गफलत दिखायी है । वे अभी तक इसी भ्रम मे पडे हुए हैं कि यह कोई बहुत छोटा-मोटा विषय है, जो छोटे-मोटे आदमियो के करने का है, और उनके जैसे बडे-बडे आदमियों को इतनी कहाँ फुरसत कि वह झंझट मे पडे । उन्होंने अभी तक इस काम का महत्व नहीं समझा, नहीं तो शायद यह उनके प्रोग्राम की पहली पॉती मे होता। मेरे विचार में जब तक राष्ट्र मे इतना सगठन, इतना ऐक्य, इतना एकात्मपन न होगा कि वह एक भाषा में बात कर सके, तब तक उसमे यह शक्ति भी न होगी कि स्वराज्य प्राप्त कर सके। गैर- मुमकिन है । जो राष्ट्र के अगुवा हैं, जो एलेक्शनों मे खड़े होते है और फतह पाते हैं, उनसे मैं बड़े अदब के साथ गुजारिश करूँगा कि हजरत इस तरह के एक सौ एलेक्शन अायॅगे और निकल जायॅगे, आप कभी