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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएॅ

अपने सार्थक रूप मे भी पूर्ण नही है । पूर्ण क्या, अधूरी भी नही है । जो राष्ट्र-भाषा लिखने का अनुभव रखते है, उन्हे स्वीकार करना पड़ेगा कि एक-एक भाव के लिए उन्हे कितना सिर-मगजन करना पडता है । सरल शब्द मिलते ही नहीं, मिलते है, तो भाषा मे खपते नही, भाषा का रूप बिगाड़ देते है, खीर मे नमक के डले की भॉति आकर मजा किरकिरा कर देते है। इसका कारण ता स्पष्ट ही है कि हमारी जनता मे भाषा का ज्ञान बहुत ही थोड़ा है और आमफहम शब्दो की संख्या बहुत ही कम है। जब तक जनता मे शिक्षा का अच्छा प्रचार नहीं हो जाता, उनकी व्यवहारिक शब्दावली बढ नही जातो, हम उनके समझने के लायक भाषा मे तात्विक विवेचनाएँ नहीं कर सकते । हमारी हिन्दी भाषा ही अभी सौ बरस की नही हुइ, राष्ट्र-भाषा तो अभी शैशवावस्था में है, और फिलहाल यदि हम उसमे सरल साहित्य ही लिख सके, तो हमको सतुष्ट हाना चाहिये । इसके साथ ही हमे राष्ट्र-भाषा का कोष बढाते रहना चाहिये । वही सस्कृत और अरबी फारसी के शब्द, जिन्हे देखकर अाज हम भयभीत हो जाते हैं, जब अभ्यास मे आ जायेंगे, तो उनका हौआपन जाता रहेगा। इस भाषा-विस्तार की क्रिया, धीरे-धीरे ही होगी। इसके साथ हमे विभिन्न प्रान्तीय भाषाओ के ऐसे विद्वानो का एक बोर्ड बनाना पडेगा, जो राष्ट्र-भाषा की जरूरत के कायल हैं । उस बोर्ड में उर्दू, हिन्दी, बॅगला, मराठी, तामिल आदि सभी भाषाओं के प्रतिनिधि रखे जाये और इस क्रिया को सुव्यवस्थित करने और उसकी गति को तेज करने का काम उनको सौपा जाय । अभी तक हमने अपने मनमाने ढग से इस आन्दोलन को चलाया है । औरो का सहयोग प्राप्त करने का यत्न नहीं किया । आपका यात्री मडल भी हिन्दी के विद्वानो तक ही रह गया । मुसलिम केन्द्रो मे जाकर मुसलिम विद्वानो की हमदर्दी हासिल करने की उसने कोशिश नहीं की ? हमारे विद्वान् लोग तो अँगरेजी मे मस्त है । जनता के पैसे से दर्शन और विज्ञान और सारी दुनिया की विद्याएँ सीखकर भी वे जनता की तरफ से ऑखे बन्द किये बैठे है ।