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साहित्य का उद्देश्य


नही।छोटा क्या, लोफरपन, अहंकार, स्वार्थान्धता, बेशर्मी, शराब और दुर्व्यसन । एक मूर्ख किसान के पास जाइये। कितना नम्र, कितना मेह- मॉनवाज, कितना ईमानदार, कितना विश्वासी। उसी का भाई टामी है, पश्चिमी शिष्टता का सच्चा नमूना, शराबी, लोफर, गुण्डा, अक्खड, हया से खाली । शिष्टता सीखने के लिए हमे अँग्रेजी की गुलामी करने की जरूरत नहीं । हमारे पास ऐसे विद्यालय होने चाहिए जहाँ ऊँची से ऊँची शिक्षा राष्ट्र-भाषा मे सुगमता से मिल सके । इस वक्त अगर ज्यादा नही तो एक ऐसा विद्यालय किसी केन्द्र-स्थान मे होना ही चाहिए । मगर हम आज भी वही भंडचाल चले जा रहे है, वही स्कूल, वही पढ़ाई । कोई भला आदमी ऐसा पैदा नही होता, जो एक राष्ट्र-भाषा का विद्यालय खोले । मेरे सामने दक्खिन से बीसो विद्यार्थी भाषा पढ़ने के लिए काशी गये, पर वहाँ कोई प्रबन्ध नही । वही हाल अन्य स्थानो मे भी है । बेचारे इधर उधर ठोकरे खाकर लौट आये। अब कुछ विद्यार्थियो की शिक्षा का प्रवन्ध हुअा है, मगर जो काम हमे करना है, उसके देखते नहीं के बराबर है । प्रचार के और तरीको मे अच्छे ड्रामो का खेलना अच्छे नतीजे पैदा कर सकता है। इस विषय मे हमारा सिनेमा प्रशंस- नीय काम कर रहा है, हाला कि उसके द्वारा जो कुरुचि, जो गन्दापन, जो विलास-प्रेम, जो कुवासना फैलायी जा रही है, वह इस काम के महत्व को मिट्टी मे मिला देती है । अगर हम अच्छे भावपूर्ण ड्रामे स्टेज कर सके, तो उससे अवश्य प्रचार बढ़ेगा । हमे सच्चे मिशनरियो की जरूरत है और आपके ऊपर इस मिशन का दायित्व है । बड़ी मुश्किल यह है कि जब तक किसी वस्तु की उपयोगिता प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न दे,कोई उसके पीछे क्यों अपना समय नष्ट करे ? अगर हमारे नेता और विद्वान् जो राष्ट्र-भाषा के महत्व से बेखबर नहीं हो सकते, राष्ट्र-भाषा का व्यवहार कर सकते तो जनता मे उस भाषा की ओर विशेष आकर्षण होता । मगर,यहाँ तो अँग्रेजियत का नशा सवार है । प्रचार का एक और साधन है कि भारत के अँग्रेजी और अन्य भाषाओ के पत्रो को हम