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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएॅ


इस पर अमादा कर सके कि वे अपने पत्रो के एक दो कानप नियमित रूप से राष्ट्र-भाषा के लिए दे सके । अगर हमारी प्राथना वे स्वीकार करें, तो उससे भी बहुत फायदा हो सकता है । हम तो उस दिन का स्वप्न देख रहे है, जब राष्ट्र-भाषा-पूर्ण रूप से अंग्रेजी का स्थान ले लेगा, जब हमारे विद्वान् राष्ट्रभाषा मे अपनी रचनाएँ करेगे, जब मद्रास और मैसूर, ढाका और पूना सभी स्थानो से राष्ट्र भाषा के उत्तम ग्रन्थ निकलेगे, उत्तम पत्र प्रकाशित होगे और भू-मण्डल की भाषाओ और साहित्यो की मजलिस मे हिन्दुस्तानी साहित्य और भाषा को भी गौरव स्थान मिलेगा, जब हम मंगनी के सुन्दर कलेवर मे नहीं, अपने फटे वस्त्रो मे ही सही, ससार साहित्य मे प्रवेश करेगे। यह स्वप्न पूरा होगा या अन्धकार मे विलीन हो जायगा, इसका फैसला हमारी राष्ट्रभावना के हाथ है। अगर हमारे हृदय मे वह बीज पड़ गया है, हमारी सम्पूर्ण प्राण-शक्ति से फले- फूलेगा। अगर केवल जिह्वा तक ही है, तो सूख जायगा ।

हिन्दी और उर्दू-साहित्य की विवेचना का यह अवसर नहीं है, और करना भी चाहे, तो समय नहीं । हमारा नया साहित्य अन्य प्रान्तीय साहित्यो की भॉति ही अभी सम्पन्न नहीं है । अगर सभी प्रातो का साहित्य हिन्दी मे आ सके, तो शायद वह सम्पन्न कहा जा सके । बॅगला साहित्य से तो हमने उसके प्रायः सारे रत्न ले लिये हैं और गुजरातो, मराठी साहित्य से भी थोड़ी-बहुत सामग्री हमने ली है। तमिल, तेलगु आदि भाषाओ से अभी हम कुछ नही ले सके, पर आशा करते है कि शीघ्र ही हम इस खजाने पर हाथ बढ़ायेगे, बशर्ते कि घर के भेदिया ने हमारी सहायता की । हमारा प्राचीन साहित्य सारे का सारा काव्यमय है, और यद्यपि उसमे शृङ्गार और भक्ति की मात्रा ही अधिक है, फिर भी बहत कुछ पढ़ने योग्य है। भक्त कवियो की रचनाएँ देखनी है, तो तुलसी, सूर और मीरा आदि का अध्ययन कीजिये, ज्ञान मे कबीर अपना सानी नहीं रखता और शृङ्गार तो इतना अधिक है कि उसने एक प्रकार से हमारी पुरानी कविता को कलकित कर दिया है । मगर, वह उन कवियों का