वह राष्ट्रलिपि का विषय है । बोलने की भाषा तो किसी तरह एक हो
सकती है, लेकिन लिपि कैसे एक हो ? हिन्दी और उर्द लिपियो मे तो
पूरब-पच्छिम का अन्तर है । मुसलमाना को अपनी फारसी लिपि उतनी
ही प्यारा है, जितनी हिन्दुओ को अपनी नागरी लिपि । वह मुसलमान
भी जो तमिल, बॅगला या गुजराती लिखते-पढ़ते है, उर्दू को धार्मिक
श्रद्धा की दृष्टि से देखते है; क्योकि अरबी और फारसी लिपि मे वही
अन्तर है, जो नागरी और बॅगला मे है, बल्कि उससे भी कम ।
इस फारसी लिपि मे उनका प्राचीन गौरव, उनकी सरकृति, उनका
ऐतिहासिक महत्व सब कुछ भरा हुआ है। उसमे कुछ कचाइयों है,
तो खूबियाँ भी है, जिनके बल पर वह अपनी हस्ती कायम रख सकी है।
वह एक प्रकार का शार्टहैड है । हमे अपनी राष्ट्र-भाषा और राष्ट्रलिपि
का प्रचार मित्र-भाव से करना है, इसका पहला कदम यह है कि हम
नागरी लिपि का संगठन करे । बंगला, गुजराती, तमिल, श्रादि अगर
नागरी लिपि स्वीकार कर लें, तो राष्ट्रीय लिपि का प्रश्न बहुत कुछ
हल हो जायगा और कुछ नही तो केवल संख्या ही नागरी को प्रधानता
दिला देगी । और हिन्दी लिपि का सीखना इतना आसान है और
इस लिपि के द्वारा उनकी रचनाओ और पत्रो का प्रचार इतना ज्यादा
हो सकता है कि मेरा अनुमान है, वे उसे आसानी से स्वीकार कर
लेंगे। हम उर्दू लिपि को मिटाने तो नहीं जा रहे हैं। हम तो केवल
यही चाहते है कि हमारी एक कौमी लिपि हो जाय । अगर सारा देश
नागरी लिपि का हो जायगा, तो सम्भव है मुसलमान भी उस लिपि को
कुबूल कर लें । राष्ट्रीय चेतना उन्हे बहुत दिन तक अलग न रहने
देगी। क्या मुसलमानो मे यह स्वाभाविक इच्छा नहीं होगी कि उनके
पत्र और उनकी पुस्तकें सारे भारतवर्ष मे पढ़ी जायें ? हम तो किसी
लिपि को भी मिटाना नहीं चाहते । हम तो इतना ही चाहते हैं कि
अन्तान्तीय व्यवहार नागरी मे हो । मुसलमानों मे राजनैतिक जागृति
के साथ यह प्रश्न आप हल हो जायगा । यू० पी० मे यह आन्दोलन
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