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साहित्य का उद्देश्य


मिलते-जुलते रहने की कोशिश किया करती है ।लिखित-भाषा की खूबी यही है कि वह बाल चाल की भाषा से मिले। इस आदर्श से वह जितनी ही दूर जाती है, उतना ही अस्वाभाविक हो जाती है । बोल-चाल की भाषा भी अवसर भार परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। विद्वानों के समाज मे जो भाषा बोली जाती है, वह बाजार की भाषा से अलग होती है । शिष्ट भाषा की कुछ-न-कुछ मर्यादा तो होनी ही चाहिए, लेकिन इतनी नही कि उससे भाषा के प्रचार मे बाधा पडे । फारसी शब्दा में शीन काफ की बड़ी कैद है, लेकिन कौमी भाषा मे यह कैद ढीली करनी पड़ेगी। पञ्जाब के बडे-बडे विद्वान भी 'क' की जगह 'क' ही का व्यवहार करते है। मेरे खयाल मे तो भाषा के लिए सबसे महत्व की चीज है कि उसे ज्यादा-से-ज्यादा आदमी, चाहे वे किसी प्रान्त के रहने वाले हो, समझे, बोले, और लिखे । ऐसी भाषा न पडिताऊ होगी और न मौलवियो की। उसका स्थान इन दोनो के बीच मे है । यह जाहिर है कि अभी इस तरह की भाषा मे इबारत की चुस्ती और शब्दो के विन्यास की बहुत थोडी गुञ्जायश है । और जिसे हिन्दी या उर्दू पर अधिकार है, उसके लिए चुस्त और सजीली भाषा लिखने कालालच बड़ा जोरदार होता है । लेखक केवल अपने मन का भाव नहीं प्रकट करना चाहता; बल्कि उसे बना-सँवारकर रखना चाहता है। बल्कि यो कहना चाहिये कि वह लिखता है रसिको के लिए, साधारण जनता के लिए नहीं। उसी तरह, जैसे कलावत राग-रागिनियाँगाते समय केवल संगीत के आचार्यों हो से दाद चाहता है, सुननेवालो मे कितने अनाडी बैठे है, इसकी उसे कुछ भी परवाह नहीं होती । अगर हमे राष्ट्र-भाषा का प्रचार करना है, तो हमे इस लालच को दबाना पडेगा । हमे इबारत की चुस्ती पर नही, अपनी भाषा को सलीस बनाने पर खास तौर से ध्यान रखना होगा । इस वक्त ऐसी भाषा कानां और ऑखों को खटकेगी जरूर, कहीं गगा-मदार का जोड नजर आयेगा, कही एक उर्दू शब्द हिन्दी के बीच मे इस तरह डटा हुआ मालूम होगा, जैसे कौओं के बीच मे हंस आ