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हिन्दी-ऊर्दू की एकता


आप सहल किस्म की उर्दू पायेगे । हिन्दी की अदबी किताबो मे भी- अरबी और फारसी के सैकडो शब्द धड़ल्ले से लाये जाते हैं। मगर उर्दू साहित्य मे फारसीयत की तरफ ही ज्यादा मुकाव है । इसका सबब यही है कि मुसलमानो ने हिन्दी से कोई ताल्लुक नहीं रखा है और न रखना चाहते है। शायद हिन्दी से थोड़ी-सी वाकफियत हासिल कर लेना भी वह बरसरे-शान समझते है, हालाकि हिन्दी वह चीज है, जो एक हफ्ते मे आ जाती है। जब तक दोनो भाषाश्रीं का मेल न होगा, हिन्दुस्तानी जबान की गाड़ी जहाँ जाकर रुक गयी है, उससे आगे न बढ सकेगी। और यह सारी करामात फोर्ट विलियम की है जिसने एक ही जबान के दो रूप मान लिये । इसमे भी उस वक्त कोई राजनीति काम कर रही थी या उस वक्त भी दोनो जबानों मे काफी फर्क आ गया था, यह हम नहीं कह सकते। लेकिन जिन हाथों ने यहाँ की जबान के उस वक्त दो टुकड़े कर दिये उसने हमारी कौमी जिन्दगी के दो टुकडे कर दिये । अपने हिन्दू दोस्तो से भी मेरा यही नम्र निवेदन है कि जिन शब्दो ने जन साधारण मे अपनी जगह बना ली है, और उन्हे लोग आपके मॅह या कलम से निकलते ही समझ जाते है, उनके लिए सस्कृत-कोष की मदद लेने की जरूरत नहीं । 'मौजूद' के लिए 'उपस्थित', 'दादा' के लिए 'सकल्प', 'बनावटी' के लिए 'कृत्रिम' शब्दो को काम मे लाने की कोई खास जरूरत नही। प्रचलित शब्दों को उनके शुद्ध रूप मे लिखने का रिवाज भी भाषा को अकारण ही कठिन बना देता है। खेत को क्षेत्र, बरस का वर्ष, छेद को छिद्र, काम को कार्य, सूरज को सूर्य, जमना को यमुना लिखकर आप मुॅह और जीभ के लिए ऐसी कसरत का सामान रख देते है जिसे नब्बे फी सदी आदमी नहीं कर सकते । इसी मुश्किल को दूर करने और भाषा को सुबोध बनाने के लिए कवियों ने व्रजभाषा और अवधी मे शब्दों के प्रचलित रूप ही रखे थे । जनता मे अब भी उन शब्दों का पुराना बिगड़ा हुआ रूप चलता है, मगर हम विशुद्धता की धुन मे पड़े हुए है।

मगर सवाल यह है, क्या इस हिन्दुस्तानी मे क्लासिकल भाषाओ