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साहित्य का उद्देश्य


के शब्द लिये ही न जाये १ नही, यह तो हिन्दुस्तानी का गला घोट देना होगा । आज साएस की नयी-नयी शाखें निकलती जा रही है और नित नये शब्द हमारे सामने आ रहे हैं, जिन्हे जनता तक पहुँचाने के लिए हमे सस्कृत या फारसी की मदद लेनी पड़ती है। किस्से-कहानियों मे तो आप हिन्दुस्तानी जबान का व्यवहार कर सकते है, वह भी जब आप गद्य-काव्य न लिख रहे हो, मगर अालोचना या तनकीद, अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन और अनेक साएस के विषयो मे क्लासिकल भाषाओं से मदद लिये बगैर काम नही चल सकता । तो क्या सस्कृत और अरबी या फारसी से अलग-अलग शब्द बन जाय । ऐसा हुआ तो एकरूपता कहाँ आयी ? फिर तो वही होगा जो इस वक्त हो रहा है। जरूरत तो यह है कि एक ही शब्द लिया जाय, चाहे वह सस्कृत से लिया जाय, या फारसी से, या दोनों को मिलाकर कोई नया शब्द गढ़ लिया जाय । Sex के लिए हिन्दी मे कोई शब्द अभी तक नहीं बन सका । आम तौर पर 'स्त्री-पुरुष सम्बन्ध' इतना बड़ा शब्द उस भाव को जाहिर करने के लिए काम मे लाया जा रहा है। उर्दू मे 'जिन्स' का इस्तेमाल होता है । जिसी, जिसियत आदि शब्द भी उसी से निकले है । कई लेखकों ने हिन्दी मे भी जिसी, जिस, जिंसियत का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है । लेकिन यह मसला आसान नहीं है । अगर हम इसे मान ले कि हिन्दु- स्तान के लिए एक कौमी जबान की जरूरत है, जिसे सारा मुल्क समझ सके तो हमे उसके लिए तपस्या करनी पडेगी । हमे ऐसी सभाएँ खोलनी पड़ेगी जहाँ लेखक लोग कभी-कभी मिलकर साहित्य के विषयो पर, या उसकी प्रवृत्तियों पर आपस मे खयालात का तबादला कर सकें। दिलो की दूरी भाषा की दूरी का मुख्य कारण है। अापस के हेल-मेल से उस दूरी को दूर करना होगा । राजनीति के पण्डितो ने कौम को जिस दुर्दशा मे डाल दिया है, वह आप और हम सभी जानते है । अभी तक साहित्य के सेवको ने भी किसी-न-किसी रूप मे राजनीति के पण्डितों को अगुआ माना है, और उनके पीछे-पीछे चले हैं । मगर अब साहित्यकारों को