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हिन्दी उर्दू की एकता

बूत भावना है । यही मकसद सामने रखकर हमने 'हस' नाम की एक मासिक पत्रिका निकालनी शुरू की है, जिसमे हरेक भाषा के नये और पुराने साहित्य की अच्छी-से-अच्छी चीजे देने की कोशिश करते है। इसी मकसद को पूरा करने के लिए हमने एक भारतीय साहित्य परिषद् या हिन्दुस्तान की कौमी अदबी सभा की बुनियाद डालने की तजवीज की है और परिषद् का पहला जलसा २३, २४* को नागपूर मे महात्मा गाँधी की सदारत मे करार पाया है। हम कोशिश कर रहे है कि परिषद् मे सभी सूबे के साहित्यकार आये और आपस मे खयालात का तबादला करके हम तजवीज को ऐसी सूरत दे, जिसमे वह अपना मकसद पूरा कर सके । बाज सूबो मे अभी से प्रातीयता के जजबात पैदा होने लगे है। 'सूबा सूबेवालो के लिए' की सदाएँ उठने लगी है । 'हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियो के लिए' की सदा इस प्रातीयता की चीख-पुकार मे कही डूब न जाय, इसका अदेशा अभी से होने लगा है। अगर बंगाल बगाल के लिए, पजाब पजाब के लिए की हवा ने जोर पकड़ा तो वह कौमियत की जो जन्नत गुलामी के पसीने और जिल्लत से बनी थी मादम हो जायगी और हिन्दुस्तान फिर छोटे-छोटे राजो का समूह होकर रह जायगा। और फिर कयामत के पहले उसे पराधीनता की कैद से नजात न होगी। हमें अफसोस तो यह है कि इस किस्म की सदाएँ उन दिशाओ से आ रही हैं, जहाँ से हमें एकता की दिल बढानेवाली सदाओं की उम्मीद थी । डेढ सौ साल की गुलामी ने कुछ-कुछ हमारी आँखे खोलनी शुरू की थी कि फिर वही प्रान्तीयता की आवाजें पैदा होने लगी और इस नयी व्यवस्था ने उन भेद-भावों के फलने-फूलने के लिए जमीन तैयार कर दी है । अगर 'प्राविंशल अटानोमी' ने यह सूरत अख्तियार की तो वह हिन्दुस्तानी कौमियत की जवान मौत नहीं, बाल मृत्यु होगी। और वह तफरीक जाकर रुकेगी कहाँ उसकी तो कोई इति ही नहीं।


● २३, २४ अप्रैल, १६३६ ।