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साहित्य का उद्देश्य


है, और करना ही चाहिए । हरेक प्रान्त मे लोकल कौंसिलें हैं पर प्रान्तीय साहित्यो की केन्द्रीय संस्था कहाँ है ? हमारे खयाल मे ऐसी एक सस्था की जरूरत है और यदि साहित्य सम्मेलन इसकी स्थापना करे, तो वह राष्ट्र और हिन्दी की बड़ी सेवा करेगा।

अभी तक हिन्दी ने जो विस्तार प्राप्त किया है, वह एक प्रकार से अपनी शक्ति द्वारा किया है । हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो भारत के सभी बड़े शहरो मे समझी जाती है, चाहे बोली न जाती हो । अगर अंग्रेजी बीच मे ना खडी होती, तो अन्य प्रान्तो के निवासी एक-दूसरे से हिन्दी ही मे बातें करते और अब भी करते हैं यद्यपि वही, जो अंग्रेजी से अनभिज्ञ है।

अब वह समय आ गया है कि प्रान्तीय भाषाओं का सम्बन्ध ज्यादा घनिष्ट किया जाय और हमारे सस्कारो का ऐसा समन्वय हो जाय कि हम राष्ट्रीय भाषा का ही नहीं, राष्ट्रीय साहित्य का निर्माण भी कर सके। हरेक प्रान्त के साहित्य की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। यह आवश्यक है कि हमारी राष्ट्र-भाषा मे उन सारी विशेषताओ का मामजस्य हो जाय और हमारा साहित्य प्रान्तीयता के दायरे से निकलकर राष्ट्रीयता के क्षेत्र मे पहुँच जाय । इस विषय मे हम अन्य भाषाओ के कर्णधारा की सहायता और सहयोग से जितना आगे बढ सकते है, उतना और किसी तरह नहीं बढ़ सकते । यो तो कई बॅगला और मराठी के विद्वान् हिन्दी मे बराबर लिख रहे है और अनुमान किया जा सकता है कि हिन्दी का क्षेत्र सदैव फैलता जायगा, लेकिन ऐसी राष्ट्रीय साहित्य-संस्था के द्वारा हम इस प्रगति को और तेज कर सकते हैं।

अभी हमे बम्बई जाने का अवसर मिला था। वहाँ गुजरात के प्रमुख साहित्य-सेवियो से बातचीत करने का हमे सौभाग्य प्राप्त हुश्रा । हमे मालूम हुआ कि वे ऐसी सस्था के लिए कितने उत्सुक है, बल्कि मैं तो कहूँगा कि यह प्रस्ताव उन्हीं महानुभावो का था और हिन्दी-साहित्य