सम्मेलन के माननीय अधिकारियो से अनुरोध करूँगा,कि वे इस प्रस्ताव
को कार्यरूप में परिणत करे । हिन्दी का प्रचार समस्त भारत मे बढ रहा
है। यदि साहित्य-सम्मेलन ऐसी सस्था का आयोजन करे, तो मुझे
विश्वास है कि अन्य भाषाओ के लेखक उसका स्वागत करेगे और
हिन्दी का गौरव भी बढेगा और विस्तार भी।
यह कौन नहीं जानता कि भारत मे प्रान्तीयता का भाव बढता जा
रहा है। इसका एक कारण यह भी है, कि हरेक प्रान्त का साहित्य
अलग है । यह आदान-प्रदान और विचार-विनिमय ही है, जिसके द्वारा
प्रान्तीयता के संघर्ष को रोका जा सकता है । राष्ट्रों का निर्माण उसके
साहित्य के हाथ मे है । यदि साहित्य प्रान्तीय है, तो उसके पढ़नेवालों
मे भी प्रान्तीयता अधिक होगी । अगर सभी भारतीय भाषाअो के साहित्य-
सेवियो का वार्षिक अधिवेशन होने लगे, तो सघर्ष की जगह सौम्य सह-
कारिता का भाव उत्पन्न होगा और यह निश्चय रूप से कहा जा सकता
है कि साहित्यो के सन्निकट हो जाने से प्रान्तो मे भी सामीप्य हा जायगा ।
जिन विद्वानो का अभी हमने नाम ही मुना है, उन्हे हम प्रत्यक्ष देखेंगे,
उनके विचार उनके श्रीमुख से सुनेगे और सत्सग से बहुत से भ्रम, बहुत सी
सकीर्णताएँ श्राप ही आप शान्त हो जायेंगी । अन्यत्र हम पी० ई० एन०
नामक विश्व-साहित्य-सस्था का सक्षिप्त विवरण प्रकाशित कर रहे है।
जब बड़ी बड़ी उन्नत भाषाप्रो को ऐसी एक सस्था की जरूरत मालूम
होती है, तो क्या भारत की प्रान्तीय भाषाओं का एक केन्द्रीय संस्था से
सम्बद्ध हो जाना आवश्यक नही है ? भारत की आत्मा, अभिव्यक्ति के
लिए अपने साहित्यकारो की ओर देख रही है । दार्शनिक उसके विचारो
को प्रकट कर सकता है, वैज्ञानिक उसके ज्ञान की वृद्धि कर सकता है,
उसका मर्म, उसकी वेदना, उसका आनन्द, उसकी अभिलाषा, उसकी
महत्वाकाक्षा तो साहित्य ही की वस्तु है और वह महान शक्ति प्रान्तीय
सीमाओं के अन्दर जकडी पड़ी है। बाहर की ताजा हवा और
प्रकाश से वह वचित है और यह बन्धन उसके विकास और वृद्धि मे