'धर्माचार्य तो जीवन की वास्तविकता से कोसो दूर है। वे तो भूतकाल
के आदों को भी नही समझते । प्राचीन आदर्श पर जो जग चढा है,
उसी को वे धर्म का रहस्य मान बैठे है।'
'यह नियत्रण तभी सफल हो सकेगा जब वह साहित्य की आत्मा से निकलेगा, जब भारतीय परिषद् पूर्ण रूप से विकसित होकर इस योग्य होगा कि संस्कृति के ऐसे महान् अग को कलुषित प्रवृत्तियो से बचाये। इसी तरह अनेक प्रश्नों पर परिषद् साहित्य-समाज की हित-साधना करता रहेगा।'
आपने भी महात्माजी के इस कथन का समर्थन किया कि हमारे साहित्य का आदर्श जन-सेवा होना चाहिए-
'जो साहित्य केवल विलासिता का ही आदर्श अपने सामने रखता है, उसके सगठन करने की आवश्यकता ही क्या ? हम तो जन-सेवा के लिए ही साहित्य की सेवा करने मे प्रवृत्त हुए है। भाषा जन-सेवा का कीमती साधन है। इसीलिए हम उसका महत्त्व मानते हैं। राष्ट्रीय एकता के बिना, सस्कृति-विनिमय के बिना, लोक-जीवन प्रसन्न, पुरुषार्थी और परिपूर्ण नही हो सकता है।'
परिषद् के स्वीकृत प्रस्तावो मे एक प्रस्ताव इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए रक्खा गया था-
अ) जो साहित्य जीवन के उच्च आदर्शों का विरोधी हो, सुरुचि को बिगाडता हो, अथवा साम्प्रदायिक सद्भावना मे बाधा डालता हो, ऐसे साहित्य को यह परिषद् हरगिज प्रोत्साहित न करेगा।
आ) लोक-जीवन के जीवित और प्रत्यक्ष सवालो को हल करने- वाले साहित्य के निर्माण को यह परिषद् प्रोत्साहन देगा।
परिषद् का अभी कोई विधान नहीं बन पाया है। उसके सचालन
के लिए एक कमेटी बन गई है, और वही उसका विधान भी बनायेगी,
और उसके कार्यक्रम का निश्चय भी करेगी। हमारी अभिलाषा है कि यह
संस्था शुद्ध साहित्यिक संस्था हो, ताकि वह हिन्दुस्तान की साहित्यिक