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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिए

एकाडेमी का पद ले सके । उसमे किसी सम्मेलन या भाषा को प्रधानता देना उसके लिए घातक होगा । उसे किसी भी प्रान्तीय-परिषद् के अतर्गत न होकर पूर्ण स्वतन्त्र होना चाहिए । प्रान्तीय परिषदो को उसके लिए मेम्बरों को चुनने का अधिकार हागा और उन्हे चाहिए कि ऐसे ही महानुभावो को उसमे भेजे जिन्होने अपनी साहित्य-सेवा और लगन से यह अधिकार प्राप्त कर लिया है। अगर वहाँ भी गिरोहबन्दी हुई, तो परिषद् की उपयोगिता गायब हो जायगी । यहाँ सम्मान और अधिकार बॉटने का प्रश्न नहीं है । यहाँ तो ऐसे साहित्य सेवियो की ज़रूरत है, जो हमारे साहित्य को ऊँचा उठा सके, उसमे प्रगति ला सके, उसमे सार्वजनिकता पैदा कर सके । महात्माजी ने इस विषय मे जो सलाह दी है, वह हमे हृदयगम कर लेनी होगी-

'हमे अब सोच लेना है कि साहित्य सम्मेलन के कार्य और भारतीय- परिषद् के कार्य मे कुछ अतिव्याप्ति है या नही । साहित्य-सम्मेलन का कर्तव्य अन्य साहित्यो का सगठन करना नहीं है । उसका कर्तव्य तो हिन्दी- भाषा की सेवा करना है और हिन्दी का देश मे प्रचार बढ़ाना है। इस परिषद् का उद्देश्य हिन्दी-भाषा की सेवा करना नह है। इसका उद्देश्य तो अन्य साहित्यो के रत्न इकह करके उसे देश के आम बर्ग के सामने रखना है।'

इस वक्त भी कई प्रान्तो को परिषद् के नेक इरादो मे विश्वास नहीं है । उनका ख्याल है, कि हिन्दी वालो ने उन पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए यह नया स्वाग रचा है। उनके दिल से यह सन्देह मिटाना होगा और तभी वे उसमे शरीक होगे और परिषद् वास्तव मे हिन्दुस्तान के साहित्य परिषद् का गौरव पा सकेगा।

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फा०१५