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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिए

को पा सकता है। अलग-अलग राष्ट्रो के रूप मे तो उसकी दशा फिर वही हो जायगी, जो मुसलमानो अोर उसके बाद अंग्रेजो के आने के समय थी। हममे से कोई भी यह नहीं चाहता कि हमारे प्रान्तीय भेद भाव फिर वही रूप धारण करें कि जब एक प्रात शत्रु के पैरो के नीचे पड़ हो, तो दूसरा प्रान्त ईर्ष्यामिश्रित हर्ष के साथ दूर से बैठा तमाशा देखता रहे । यह कहने मे हमे कोई सकोच नहीं है कि अंग्रेजो के आने के पहले हममे राष्ट्रीय भावना का नाम भी न था । यह सच है कि उस वक्त राष्ट्र-भावना इतनी प्रबल और विकसित न हुई थी, जितनी आज है, फिर भी यूरोप मे इस भावना का उदय हो गया था । उदय ही नहीं हो गया था, प्रखर भी हो गया था। अंग्रेजो की संगठित राष्ट्रीयता के सामने हिन्दुस्तान की असगठित, बिखरी हुई जनता को परास्त होना पड़ा। इसम सन्देह नहीं कि उस वक्त भी हिन्दुस्तान मे सास्कृतिक एकता किसी हद तक मौजूद थी, मगर वह एकता कुछ उसी तरह की थी, जैसी आज यूरोप के राष्ट्रो मे पाई जाती है । वेदा और शास्त्रों को सभी मानते थे, जैसे आज बाइबल को सारा यूरोप मानता है । राम और कृष्ण और शिव के सभी उपासक थे, जैसे सारा यूरोप ईसा और अनेक महात्माओं का उपासक है । कालिदास, वाल्मीकि, भवभूति आदि का आनन्द सभी उठाते थे, जैसे सारा यूरोप हामर और वर्जिल या प्लेटो और अरस्तू का आनन्द उठाता है । फिर भी उनमे राष्ट्रीय एकता न थी। यह एकता अंग्रेजी राज्य का दान है और जहाँ अंग्रेजी राज्य ने देश का बहुत कुछ अहित किया है, वहाँ एक बहुत बड़ा हित भी किया है, यानी हममे राष्ट्रीय भावना पैदा कर दी। अब यह हमारा काम है कि इस मोके से फायदा उठायें और उस भावना को इतना सजीव, इतना घनिष्ठ बना दें कि वह किसी आघात से भी हिल न सके। प्रान्तीयता का मर्ज फिर ज़ोर पकड़न लगा है। उसके साफ-साफ लक्षण दिखाई देने लगे है। इन दो सदियो की गुलामी मे हमने जो सबक सीखा था, वह हम अभी से भूलने लगे है, हालाकि गुलामी अभी ज्यों,