३ :भारतीय साहित्य परिषद् की अस्ल हकीकत
हैदराबाद के रिसाला 'उर्दू' मे मौलाना अब्दुल हक साहब ने
भारतीय साहित्य-परिषद् के जलसे का सक्षिप्त हाल लिखते हुए कुछ
ऐसी बातें लिखी है जो हमारे खयाल मे गलतफहमी के कारण पैदा हुई
है, और उन शंकाओं के रहते हुए हमे भय है कि कहीं परिषद् को उर्दू
के सहयोग से हाथ न धोना पड़े। इसलिए जरूरी मालूम होता है कि उस
विषय पर हम अपने विचार प्रकट करके उन शकाओं को मिटाने की
चेष्टा करे । भारतीय साहित्य-परिषद् ने जब हिन्दुस्तान के सभी माहित्यों के
प्रतिनिधियों को निमंत्रित किया, तो इसीलिए कि इस साहित्यिक उद्योग
मे हम सब राजनैतिक मतभेदो को भूलकर शरीक हों, और कम-से-कम
साहित्य के क्षेत्र मे तो एकता का अनुभव कर सकें। अगर परिषद के
बानियो का उद्देश्य इस बहाने से केवल हिन्दी का प्रचार करना होता,
तो उसे सभी साहित्यों को नेवता देने की कोई जरूरत न थी। हिन्दी-
प्रचार का काम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन और नागरी-प्रचारिणी सभा के
जरिये हो रहा है । उस काम के लिए एक नया परिषद् ही क्यों बनाया
जाता । हमारे सामने यही, और एक मात्र यहो उद्देश्य था कि हिन्दुस्तान
मे कोई ऐसी सस्था बनाई जाय, जिसमे सभी भाषाओ के साहित्यकार
श्रापस मे मिले, साहित्य और समाज के नये-नये जटिल प्रश्नों पर विचार
करें, साहित्य की नई विचारधाराओं की आलोचना करे, और इस तरह
उनमे एक विशाल बिरादरी के अङ्ग होने की भावना जागे, उनमें
आत्म-विश्वास पैदा हो, उन्हें दूसरे साहित्यों का ज्ञान हो और अपने
साहित्य में जो कमी नज़र आये, उसे पूरा कराने की प्रेरणा मिले। यह
सभी मानते हैं कि अगर हिन्दुस्तान का जिन्दा रहना है, तो वह एक राष्ट्र
के रूप मे ही ज़िन्दा रह सकता है, एक राष्ट्र बनकर ही वह संसार की
संस्कृति में अपने स्थान की रक्षा कर सकता है, अपने खोये हुए गौरव