स्वीकार करके 'हिन्दी हिन्दुस्तानी' को स्वीकार किया। उर्दू वालों को 'हिन्दी हिन्दुस्तानी' का मतलब समझ ने न आया, शायद वह समझे कि हिन्दी हिन्दुस्तानी केवल हिन्दी का हो दूसरा नाम है । यही उन्हे भ्रम हुआ कि शायद हिन्दुस्तानी के साथ हिन्दी को जोडकर उर्दू के साथ अन्याय हो रहा है । इसी बदगुमानी मे पड़कर मौलाना अब्दुल हक साहब क कलम से ये शब्द निकले है-
'एक दिन वह था कि महात्मा गान्धी ने हिन्दुस्तानी यानी उर्दू जबान और फारसी हरूफ मे अपने दस्तेखास से हकीम अजमलखों का खत लिखा था और आज वह वक्त आ गया है कि उदू तो उर्दू, वह तनहा 'हिन्दुस्तानी' का लफ्ज भी लिखना और सुनना पसन्द नहीं करते। उन्होने अपनी गुफतगू मे एक बार नहीं कई बार फरमाया कि अगर रेजोल्यूशन मे तनहा 'हिन्दुस्तानी' का लफ्ज रक्खा गया तो उसका मतलब उर्दू समझा जायगा लेकिन उनको नेशनल काग्रेस के रेजोल्यूशन मे तनहा हिन्दुस्तानी का लफ्ज़ रखते हुए यह खयाल न आया। आखिर इसकी क्या वजह है ? कौन से ऐसे अस्वाब पैदा हो गये हैं जो इस हैरतअंगेज इन्कलाब के बाइस हुए । गोर करने के बाद मालूम हुआ कि इस तमाम तगैयुर व तबद्दुल, जोड़ तोड़, दॉव-पेंच का बाइस हमारे मुल्क का बदनसीब पालिटिक्स है। जब तक महात्मा गाधी और उनके रफका (सहकारियों) को यह तवक्का (आशा) थी कि मुसल मानों से कोई सियासी (राजनैतिक) समझौता हो जायगा, उस वक्त तक वह हिन्दुस्तानी-हिन्दुस्तानी पुकारते रहे, जो थपककर सुलाने के लिये अच्छी खासी लोरी थी, लेकिन जब उन्हे इसकी तवक्का न रही, या उन्होने ऐसे समझौते की जरूरत न समझो, तो रिया ( फरेब ) की चादर उतार फेकी और असली रग मे नजर आने लगे। वह शौक से हिन्दी का प्रचार करें । वह हिन्दो नहीं छोड़ सकते ता हम भी उर्दू नहीं छोड़ सकते । उनको अगर अपने वसीअ जराए और वसायल (विशाल साधनों) पर घमंड है, तो हम भी कुछ ऐसे हेठे नहीं है।'