हमे मौलाना अबदुल हक-जैसे वयोवृद्ध, विचारशील और नीति-
चतुर बुजुर्ग के कलम से ये शब्द देखकर दुःख हुआ । जिस सभा में
वह बैठे हुए थे, उसमे हिन्दीवालो की कसरत थी । उर्दू के प्रतिनिधि
तीन से ज्यादा न थे। फिर भी जब 'हिन्दी हिन्दुस्तानी' और अकेले
हिन्दुस्तानी पर वोट लिये गये तो 'हिन्दुस्तानी' के पक्ष में आधी से कुछ
ही कम राये आई । अगर मेरी याद गलती नहीं कर रही है तो शायद
पन्द्रह और पचीस का बटवारा था । एक हिन्दी-प्रधान जलसे मे जहाँ
उद् के प्रतिनिधि कुल तीन हो; पन्द्रह रायो का हिन्दुस्तानी के पक्ष मे
मिल जाना हार होने पर भी जीत ही है । बहुत सभव है कि दूसरे जलसे
मे हिन्दुस्तानी का पक्ष और मज़बूत हो जाता । और जो हिन्दुस्तानी अभी
व्यवहार मे नहीं आई, उसके और ज्यादा हिमायती नहीं निकले तो कोई
ताज्जुब नही । जो लोग 'हिन्दुस्तानी' का वकालतनामा लिये हुए हैं,
और उनमे एक इन पक्तियो का लेखक भी है, वह भी अभी तक
'हिन्दुस्तानी' का कोई रूप नहीं खड़ा कर सके । केवल उसकी कल्पना-
मात्र कर सके हैं, यानी वह ऐसी भाषा हो, जो उर्दू और हिन्दी दोनों
ही के सगम की सूरत मे हो, जो सुबोध हो और श्राम बोल-चाल की
हो । यह हम हिन्दुस्तानी-हिमायतियो का कर्तव्य है कि मिलकर उसका
प्रचार करें, उसे ऐसा रूप दें कि उर्दू और हिन्दी दोनो ही पक्षवाले
उसे अपना लें । दिल्ली और लाहौर मे हिन्दुस्तानी सभाएँ खुली हुई हैं।
दूसरे शहरों मे भी खोली जा सकती हैं। यह उनका कर्तव्य होना
चाहिए कि हिन्दुस्तानी के विकास और प्रचार का उद्योग करें। और
अभी जो चीज सिर्फ कल्पना है, वह सत्य बनकर खड़ी हो जाय । हम
मौलाना साहब से प्रार्थना करेंगे कि परिषद् से इतनी जल्द बड़ी-बड़ी
आशाएँ न रक्खें और नीयतो पर शुबहा न करें। मुमकिन है आज जो
बात मुश्किल नज़र आ रही है, वह साल-दो-साल मे आसान हो जाय ।
केवल तीन उर्दू पक्षवालों की मौजूदगी का ही यह नतीजा था कि परिषद्
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