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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिए


मुसलमानो की शब्दावली का यहाँ प्रचार हुआ। दोनो ने मिलकर हिन्दुस्तानी भाषा की सृष्टि की, जो आज हमारी राष्ट्रभाषा है और हिन्दुस्तानी का आदि कवि खुसरो था, जो बलबन का समकालोन था। उसकी पहेलियाँ और मुकरियों और पद आज तक हिन्दी भाषा की सम्पत्ति हैं और इस क्षेत्र मे अब तक कोई उसका जोड़ पैदा नहीं हुआ। सदियो तक सास्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा । हिन्दू कवि फारसी और उसके बाद उर्दू मे कविता करते थे और मुसलमान कवि हिन्दी मे । जिन मुसलमान कवियो ने हिन्दी मे पद्य रचे, और हिन्दी पद्य ग्रन्थों की टीकाएँ की, उन पर आज भी हिन्दी को गर्व है। जायसी की पद्मावत तो हिन्दी भाषा का आज भी गौरव है.और सूफी कवियो ने तो मतों और पन्थो के बन्धन को तोडकर प्रेम और एकता की जो धारा चलाई उससे कौन सी भाषा प्रभावित नहीं हुई ? कई सदियो के ससर्ग से हमारी संस्कृति ने जो रूप धारण कर लिया है, उसमे किन जन समूहो का क्या अश है, उसका निर्णय करना आज असम्भव है।

अग्रेजो के आने के बाद साहित्य के आदर्श अंग्रेजी साहित्य के आधार पर नये साचे मे ढले । निबन्ध, उपन्यास, गल्प, नाटक और कविता की समृद्धि संस्कृत साहित्य के बाण, माघ और कालिदास से आई है, पर उनका स्वरूप, सूक्ष्मता और सरसता, इंगलैंड में प्रचलित रोमान्टिसिज्म द्वारा निर्मित लेखक के हृदय से निकली हैं । और यह सब शेली, वर्डस्वर्थ, स्काट और लिटन की प्रेरणा से मिली है।

१९०४ ई० में बग भग के बाद जो ज्वलत राष्ट्रीयता का संचार हमारे जीवन में हुआ, उसका प्रतिबिम्ब प्रत्येक साहित्य मे मिलता है। आज महात्मा गान्धी के लेखों और भाषणों की और उसी तरह कवीन्द्र रवीन्द्र की कृतियों की प्रेरणा हर एक एक साहित्य को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर रही है।

भारतीय साहित्य मे मौलिक एकता पहले भी थी और अब भी है, सिर्फ भाषा का परिधान हर प्रान्त मे पृथक्-पृथक् रहा । सारा साहित्य