तत्वों का बल पहुंचाना होगा । भारतीय साहित्य वही है, जिसमें प्रान्तः
प्रान्त की साहित्य-समृद्धि का सर्वाग सुन्दर सार-तत्व हो। अपने राष्ट्र
की आत्मा का साहित्य द्वारा सबको दर्शन होना चाहिए। ये ही विचार
हमारे इस प्रयत्न के प्रेरणा रूप है।
देश के सभी प्रान्तों के साहित्य मे आन्तरिक एकता भरी हुई है। साहित्यिक रचनाएँ चाहे जिस भाषा मे लिखी गई हों, बे एक सूत्र मे पिरोई हुई हैं। यह सूत्र कोई नया नहीं, परम्परा से चला आ रहा है। हर एक साहित्य मे भगवान व्यास कृष्ण द्वैपायन की प्रेरणा है । रामायण के अप्रतिम सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब उसमे झलकता है । पुराणों की प्रति- ध्वनियाँ युग-युग के साहित्य मे गूंजती है । संस्कृत साहित्य के निर्माताओं की ज्योति ने प्रत्येक प्रान्त के साहित्यकारो को प्रोत्साहन दिया है । अपने कथा साहित्य ने भी एकसूत्र-रूप हो हरेक प्रान्त के साहित्य को एक श्रखला मे बाँध लिया है । जातक की कथाएँ किसी न किसी रूप मे प्रत्येक प्रान्तीय साहित्य में मिलती है । गुणाढ्य की बृहत्कथा और पचतन्त्र के अनुवाद सभी प्रान्तो मे प्रेम से अपनाये गये है। यह अपनी लोक कथायें इस देश की स्वयभू और जीवन साहित्य हैं और इसका मूल तत्व इस देश की, यहाँ की प्रजा की समान संस्कारी कल्पना मे है ।
पिछले काल मे भगवत् धर्म और भगवद्भक्ति ने हर एक प्रान्त के साहित्य को पुनर्जन्म दिया है । विद्यापति और चंडीदास, सूर और तुलसी, नरसी, मीरा और कबीर, ज्ञानदेव और साधु तुकाराम, आलवार और और प्राचार्यों के पद शकर, रामानुज, मध्व, वल्लभ और चैतन्य के प्रभावशाली सिद्धान्त एक अोर से भारत की सास्कारिक एकता का ख्याल कराते है और दूसरी तरफ समस्त भारत के संस्कारों को एक रूप बनाते हैं।
और मुस्लिम राज्य काल मे हिन्दू मुस्लिम सस्कारों के विनिमय का
असर किस प्रान्त पर नहीं पड़ा ? अगर संगीत मे मुसलमानों ने हिन्दुओं
की शब्दावली और रस को अपनाया, तो नीति और राजकीय विषयो मे