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अन्तरप्रान्तीय साहित्यिक आदान-प्रदान के लिए


आती है इस भाषा मे हम अपने भारतीय संस्कारो को किस रीति से दिखला सकते है ? अपनी देश भाषा से बधे हुए अपने सस्कारी को पर- भाषा के बेढंगे स्वरूप मे किस प्रकार व्यक्त करे ?

हिन्दी कई प्रान्तीय भाषाओ की बड़ी बहन है । उर्दू के साथ इसका बहत निकट सम्बन्ध । है । कई करोड़ प्रजा हिन्दी मे बोलती है, और उससे भी अधिक सख्या इसे समझ सकती है । आज इसे राष्ट्र सिंहासन पर राष्ट्र विधाताओं ने बिठाया है। इसे छोड़ हम क्या परभाषा मे साहित्य का विनिमय करें।

हिन्दी को छोड़कर दूसरी भाषा इस देश की हो नहीं सकती है । हमे इस वस्तु का भान, इस बात का विश्वास, जितनी जल्दी हो जाय, उतना ही इस देश का भाग्योदय जल्दी नजदीक आ पहुँचेगा।

हिन्दी मे हर एक प्रान्त का साहित्य अवतीर्ण हो तो यह प्रयाग या काशी की हिन्दी न होगी, इस हिन्दी मे हर एक प्रान्त की विशेषताएँ अवश्य होगी । इसकी वाक्य रचना मे विविधता पायेगी । इसके कोष मे अन्य अपरिचित भाषाओ के शब्द भी आकर जमा होगे। ऐसी अनेक सामग्रियों मे से नई राष्ट्रभाषा प्रकट होगी।

ऐसी एक सर्वसामान्य भाषा के लिए मौलिक हिन्दी का ही उपयोग करना जरूरी है । थोड़े सरल शब्दो की यह एक भाषा बने, यह सर्वथा बाछनीय है; परन्तु यह काम साहित्यिक दृष्टि से उतना सहल नहीं, यह हम अच्छी तरह समझते हैं । अाज हिन्दी मे, बंगला मे, मराठी और 'गुजराती में, तेलुगू और मलयालम मे, सस्कृत के अश प्रति दिन बढते जा रहे हैं । संस्कृत की समृद्धि और उसके माधुर्य की सहायता न होती, तो इन भाषाओ का विकास सम्भव नहीं था, अर्थात् उसकी समृद्धि और माधुर्य रखने और सरलता को सुरक्षित रखने के लिए ये प्रश्न बहुत से साहित्यकारो के सामने उपस्थित हैं । वे इन कठिनाइयो को खूब जानते हैं, कि ये आसानी से हल होने वाली नहीं हैं। इससे भी बड़ा और महत्व का एक प्रश्न है। हिन्दू और मुसलमान...दोनों को समझ में आये, ऐसी