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साहित्य का उद्देश्य

इससे स्पष्ट है कि सच्चे साहित्य के निर्माण मे वही सफल हो सकता है जिसने तपस्या और सयम से अपने को इस योग्य बनाया हो । इसके लिए एक प्रकार की दैवी शक्ति चाहिए, जो पूर्व सस्कार और इस जन्म की तपस्या और सयम का ही फल हो सकती है।'

साहित्य मे संयम, साधना और अनुभूति का कितना महत्त्व है, इस पर जोर देते हुए आपने आगे चलकर कहा-

'अनुभूति और मस्तिष्क-चमत्कार में उतना ही भेद है, जितना मधु के सुन्दर वर्णन मे और उसके चखने मे । इसलिए चाहे जिस प्रकार के ग्रथ क्यो न लिखे जायें, यदि वह अनुभूति और जीवन से निकले है, तो उनकी कीमत है और उनमे ओज और प्रभाव है । यदि वह केवल चमत्कार मात्र है, तो उन्हे केवल वागाडम्बर ही मानना चाहिए । इस कसौटी पर अपने अाधुनिक साहित्य को कसा जाय, तो थोड़े ही ग्रन्थ खरे निकलेंगे। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास और सूरदास आज भी प्रिय है और करोड़ों के जीवन सुधार मे प्रेरक होते हैं। उनके पदो मे एक प्रकार का आनन्द है, जो दूसरो की रचनाओ मे शीघ्र ही नहीं मिलता । इसलिए कविता और दूसरे साहित्य-निर्माण करनेवालों से यही सविनय निवेदन है कि यह उनका धर्म है कि युग और समय के अनुसार सच्चे साहित्य का निर्माण करे । जातीय जीवन की झलक साहित्य मे पानी चाहिए । हमारा भावनाश्रो और उमंगों को साहित्य मे प्रतिबिम्बित होना चाहिए । हमारी उम्मीदे, अभिलाषाएँ और उच्चा- काक्षाएँ साहित्य मे प्रदर्शित होनी चाहिए और उनको साहित्य से पुष्टि भी मिलनी चाहिए।'

इस भाषण का एक एक शब्द विचार और अनुकरण करने योग्य है । यही बाते हम भी बराबर कहते आये है; पर कही-कहीं उसका जवाब यही मिला है कि कला कला के लिए है, उसमे किसी प्रकार का उद्देश्य न होना चाहिए । अाशा है वह सज्जन अब इस उत्तरदायित्वपूर्ण कथन को पढ़कर अपने विचारों मे तरम में करेंगे।