प्रदान कर दिया था। चौबीस अप्रेल की शाम को पडाल में स्वागता- ध्यक्षजी का मुख्तसर पर समयानुकूल भाषण हुआ। पश्चात् सभापति ने अपना सदारती भाषण सुनाया । अब तक हमने सम्मेलन के जितने सदारती भाषण पढे, हमे अपने कानो से सुनने का केवल एक बार दिल्ली मे अवसर मिला। उसमे दो-एक को छोड़कर सभी भापणो का एक ढर्रा-सा निकला हुआ जान पड़ा। जो आया उसने हिन्दी-भाषा की उत्पत्ति से प्रारम्भ किया और उसके ही विकास की लम्बी कथा पढ़ सुनाई । साहित्य की समस्याओ और धाराओ से उसे कोई मतलब नहीं । बाबू राजेन्द्र प्रसाद का भाषण विद्वत्तापूर्ण भी था, अालोचनात्मक भी और व्यावहारिक भी । भाषा और साहित्य का ऐसा कोई पहलू नहों, जिस पर आपने प्रकाश न डाला हा और मोलिक आदेश न दिया हो। भाषा के भडार को बढ़ाने के विषय मे आपने जो सलाह दी, उससे किसी भी प्रगतिशील आदमी को आपत्ति नहीं हो सकती । आपने बतलाया कि हिन्दी मे अरबी और फ़ारसी के जो शब्द आकर मिल गये हैं, उन्हे व्यवहार मे लाना चाहिए । पारिभाषिक शब्दो के विषय में श्रापका प्रस्ताव है कि यथासाध्य सभी प्रान्तीय भाषाओ मे एक ही शब्द रखा जाय । प्रत्येक भाषा मे अलग-अलग शब्द गढने मे समय और श्रम लगाना बेकार है । आपने यह भी बताया कि गॉव मे ऐसे हजारो शब्द हैं, जिनको हमने साहित्यिक हिन्दी से बाद कर दिया है, हालाकि वे अपने आशय को जितनी सफाई और निश्चयता से बताते हैं, वह सस्कृत से लिए हुये शब्दों में नहीं पाई जाती।
साहित्य के मर्म के विषय मे भी आपके विचार इतने ऊँचे और मान्य है। आपने सच्चे-साहित्य की बात यो बताई-
'सच्चे साहित्य का एक ही माप है। चाहे उसमे रस कोई भी हो पर यदि वह मानव जाति को ऊपर ले जाता हो, तो सच्चा साहित्य है, और यदि उसका प्रभाव इससे उल्टा पड़ता हो, तो चाहे जैसी भी सुन्दर और ललित भाषा में क्यो न हो, वह ग्राह्य नहीं हो सकता।