बेकार के हसी-मजाक, खिलवाड़ या गाली-गलौज मे नहीं,अखबारों के
पढ़ने मे बिताते है । जिस प्रकार वे अपनी शारीरिक भूख के लिए अन्न
को आवश्यक समझते है, उसी प्रकार वे अपनी आत्मा की भूख के
लिए पत्रों को खरीदकर पढना जरूरी समझते है। उन्होने पत्रो का पढना
अपना एक अटल नियम बना रखा है। जो मनुष्य जिस रुचि का
होता है, अपनी रुचि के पत्र का ग्राहक बन जाता है और उस पत्र से
अपना ज्ञान-वर्द्धन और मनोरजन करता है। वहाँ के लोग पत्रो को
खरीद कर पढ़ते है। कहीं से मागकर नहीं लाते । वे दूसरो के अखबार
को जूठन समझते हैं। यही कारण है कि वहाँ के पत्रो के ग्राहको की
संख्या पचास लाख तक है। जब हम यह समाचार पढ़ते हैं और
भारतीय पत्रो की ओर दृष्टिपात करते हैं तो दाॅतों तले उँगली दबाने
लगते हैं । कहते हैं विदेश के लोग पत्र निकालना जानते है । वे लोग
शिक्षा मे और सभी बातो मे हमसे आगे बढ़े हुए है। उनके पास पैसा
है। यह सभी बातें सही हो सकती है। किन्तु भारतीय पत्रों की प्रकाशन
सख्या न बढ़ने का केवल यही कारण नहीं है कि भारतीय विद्वान पत्र
निकालना नही जानते, वे शिक्षा मे पिछडे हुए है और पत्रो को खरीदने
के लिए भारतीय जनता के पास पैसा नहीं है । यह दलीले कुछ अशो
में ठीक हो भी सकती है; पर भारतीय पत्रो के न पनपने का एक और
भी प्रबल कारण है।
हमारे यहाँ ऐसे लाखो मनुष्य हैं, जो पैसे वाले है, जिनकी अार्थिक
स्थिति अच्छी है, जो शिक्षित है, और जिन्हे पत्रो को पढते रहने का
शौक भी है । पर वे लोग मुफ्तखोर हैं । पत्रो के लिए पैसा खर्च करना
वे पाप समझते है । या तो पत्रो को खोज-खाजकर अपने मित्रो और
परिचित लोगों के यहाँ से ले आयेंगे, या लाइब्रेरियो मे जाकर देख
आयेगे। लेकिन उनके लिए पैसा कभी न खर्च करेंगे । सोचते है जब
तिकड़मबाजी से ही काम चल जाता है तो व्यर्थ पैसा कौन खर्च करे।
यह दशा ऐसे लोगों की है जो हजारो का व्यवसाय करते हैं और व्याह