पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/२७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

समाचारपत्रों के मुफ्तखोर पाठक

 

जहाँ विदेश से निकलनेवाले पत्रों के लाखों ग्राहक होते हैं वहाँ हमारे अच्छे से अच्छे भारतीय पत्र के ग्राहकों की संख्या कुछ हजारों से अधिक नहीं होती। यह एक विचारणीय बात है। जापान का ही एक उदाहरण लीजिये। यह तो सबको मालूम है कि जापान भारतवर्ष का षष्टमाश ही है, फिर भी जहाँ भारत से कुल ३५०० पत्र प्रकाशित होते हैं, वहाँ जापान से ४५००, और यह ४५०० भी ऐसे पत्र है जिनके प्रकाशन की संख्या हजारो नहीं लाखों की है। 'ओसाका मेनीची' नाम का एक दैनिक पत्र है। उसके कार्यालय की इमारत ही तैतीस लाख रुपये की है। 'ओसाका ओसाही' और 'टोकियो नीची' नामक दो पत्र भी इसी कोटि के हैं। एक-एक पत्र के कार्यालय में दो तीन हजार तक आदमी काम करते हैं और उनका जाल संसार भर में फैला हुआ है। जिस पत्र के कार्यालय में चार छः सौ आदमी काम करते हैं, उसकी तो वहाँ कोई गणना ही नहीं होती। कई पत्र तो वहाँ ऐसे हैं जो पचास लाख तक छापे जाते है और दिन में जिनके आठ-आठ संस्करण निकलते है और जिनको वितरण करने के लिए हवाई जहाजों से काम लिया जाता है। यह है जापानी पत्रों का वैभव। और इस वैभव का कारण है वहाँ की शिक्षित जनता का पठन प्रेम और सहयोग। वहाँ के प्रत्येक पाँच आदमियों में आपको एक आदमी अखबार पढ़ने वाला अवश्य मिलेगा। पूंजीपति से लेकर मजदूर तक, बूढ़े से लेकर छोटे बच्चे तक, पत्रों को स्वयं खरीद कर पढ़ते हैं। फुरसत के समय को वे लोग

२७४