हॉ, है । वीभत्स में सुन्दर और सत्य मौजूद है। भारतेन्दु ने श्मशान
का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स है । प्रेतो और पिशाचो
का अधजले मास के लोथडे नोचना, हड्डियो को चटर-चटर चबाना,
चीभत्स की पराकाष्ठा है। लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुन्दर है,
क्योकि उसकी सृष्टि पीछे आनेवाले स्वर्गीय दृश्य के आनन्द को तीव्र
करने के लिए ही हुई है। साहित्य तो हर एक रस मे सुन्दर खोजता
है-राजा के महल मे, रंक की झोपडी मे, पहाड़ के शिखर पर, गंदे
नालो के अदर, उषा की लाली मे, सावन-भादो की अँधेरी रात मे ।
और यह आश्चर्य की बात है कि रक की झोपडी मे जितनी आसानी से
सुन्दर मूर्तिमान दिखाई देता है उतना महलो मे नहीं। महलो मे तो वह
खोजने से मुश्किलों से मिलता है । जहाँ मनुष्य अपने मौलिक, यथार्थ
अकृत्रिम रूप मे है, वहीं अानन्द है । आनन्द कृत्रिमता और आडम्बर
से कोसों भागता है। सत्य का कृत्रिम से क्या सम्बन्ध । अतएव हमारा
विचार है कि साहित्य मे केवल एक रस है और वह शृङ्गार है । कोई रस
साहित्यिक-दृष्टि से रस नहीं रहता और न उस रचना की गणना साहित्य
में की जा सकती है जो शृङ्गार-विहीन और असुन्दर हो। जो रचना
केवल वासना-प्रधान हो, जिसका उद्देश्य कुत्सित भावो को जगाना हो,
जो केवल वाह्य जगत् से सम्बन्ध रखे, वह साहित्य नहीं है। जासूसी
उपन्यास अद्भुत होता है । लेकिन हम उसे साहित्य उसी वक्त कहेगे,
जब उसमे सुन्दर का समावेश हो, खूनी का पता लगाने के लिए सतत
उद्योग, नाना प्रकार के कष्टों का झेलना, न्याय-मर्यादा की रक्षा
करना, ये भाव रहे, जो इस अद्भुत रस की रचना को सुन्दर बना
देते है।
सत्य से आत्मा का सम्बन्ध तीन प्रकार का है । एक जिज्ञासा का
सम्बन्ध है, दूसरा प्रयोजन का सम्बन्ध है और तीसरा आनन्द का ।
जिज्ञासा का सम्बन्ध दर्शन का विषय है, प्रयोजन का सम्बन्ध विज्ञान का
विषय है और साहित्य का विषय केवल आनन्द का सम्बन्ध है । सत्य