जहाँ आनन्द का स्रोत बन जाता है, वहीं वह साहित्य हो जाता है।
जिज्ञासा का सम्बन्ध विचार से है, प्रयोजन का सम्बन्ध स्वार्थ-बुद्धि से।
आनन्द का सम्बन्ध मनोभावों से है। साहित्य का विकास मनोभावों
द्वारा ही होता है । एक दृश्य या घटना या काड को हम तीनो ही भिन्न-
भिन्न नजरो से देख सकते है । हिम से ढंके हुए पर्वत पर ऊषा का दृश्य
दार्शनिक के गहरे विचार की वस्तु है, वैज्ञानिक के लिए अनुसन्धान
की, और साहित्यिक के लिए विह्वलता की। विह्वलता एक प्रकार का
आत्म-समर्पण है। यहाँ हम पृथक्ता का अनुभव नही करते । यहाँ
ऊँच-नीच, भले-बुरे का भेद नहीं रह जाता। श्रीरामचन्द्र शवरी के जूठे
बेर क्यो प्रेम से खाते है, कृष्ण भगवान विदुर के शाक को क्यो नाना
व्यञ्जनो से रुचिकर समझते है ? इसीलिए कि उन्होंने इस पार्थक्य को
मिटा दिया है। उनकी आत्मा विशाल है। उसमे समस्त जगत् के
लिए स्थान है । आत्मा अात्मा से मिल गयी है। जिसकी आत्मा
जितनी ही विशाल है, वह उतना ही महान पुरुष है। यहाँ तक कि ऐसे
महान् पुरुष भी हो गये हैं, जो जड जगत् से भी अपनी आत्मा का मेल
कर सके है।
आइये देखें, जीवन क्या है ? जीवन केवल जीना, खाना, सोना
और मर जाना नहीं है । यह तो पशुत्रो का जीवन है। मानव-जीवन मे
भी यह सभी प्रवृत्तियाँ होती हैं , क्योकि वह भी तो पशु है। पर इनके
उपरान्त कुछ और भी होता है। उनमे कुछ ऐसी मनोवृत्तियाँ होती हैं,
जो प्रकृति के साथ हमारे मेल मे बाधक होती है, कुछ ऐसी होती हैं, जो
इस मेल मे सहायक बन जाती है। जिन प्रवृत्तियो मे प्रकृति के साथ
हमारा सामजस्य बढ़ता है, वह वाछनीय होती है, जिनसे सामंजस्य मे
बाधा उत्पन्न होती है, वे दूषित है। अहङ्कार, क्रोध या द्वेष हमारे मन
की बाधक प्रवृत्ति है । यदि हम इनको बेरोक-टोक चलने दे, तो निस्सदेह
वह हमे नाश और पतन की ओर ले जायेंगी, इसलिए हमे उनकी
लगाम रोकनी पड़ती है, उन पर संयम रखना पड़ता है, जिसमे वे अपनी