है।इसके पश्चात् बहुत-सी आख्यायिकाश्रो को एक शृङ्खला मे बाँधने की
प्रथा चली । बैताल-पचीसी और सिंहासन-बत्तीसी इसी श्रेणी की पुस्तकें
हैं। उनमे कितनी नैतिक और धार्मिक समस्याएँ हल की गयी है, यह
उन लोगो से छिपा नही है, जिन्होने उनका अध्ययन किया है। अरबी
मे सहस्र-रजनी-चरित्र इसी भॉति का अद्भुत संग्रह है; किन्तु उसमे किसी
प्रकार का उपदेश देने की चेष्टा नहीं की गयी है। उसमे सभी रसो का
समावेश है, पर अद्भुत रस ही की प्रधानता है, और अद्भुत रस मे
उपदेश की गुञ्जाइश नहीं रहती। कदाचित् उसी आदर्श को लेकर इस
देश मे शुक बहत्तरी के ढग की कथाएँ रची गयीं, जिनमे स्त्रियो की
बेवफाई का राग अलापा गया है । यूनान मे हकीम ईसप ने एक नया
ही ढङ्ग निकाला । उन्होने पशुपक्षियो की कहानियो द्वारा उपदेश देने का
आविष्कार किया।
मध्यकाल काव्य और नाटक-रचना का काल था ; आख्यायिकाओं
की ओर बहुत कम व्यान दिया गया । उस समय कहीं तो भक्ति-काव्य
की प्रधानता रही, कही राजाश्रा के कीर्तिगान की । हॉ, शेखसादी ने
फारसी मे गुलिस्तॉ-बोस्तॉ की रचना करके आख्यायिकाो की मर्यादा
रखी । यह उपदेश-कुसुम इतना मनोहर और सुन्दर है कि चिरकाल तक
प्रेमियो के हृदय इसके सुगन्ध से रञ्जित होते रहेगे। उन्नीसवीं शताब्दी
मे फिर आख्यायिकानो की अोर साहित्यकारो की प्रवृत्ति हुई; और तभी
से सभ्य-साहित्य मे इनका विशेष महत्व है। योरप की सभी भाषाश्रो मे
गल्पो का यथेष्ट प्रचार है; पर मेरे विचार मे फ्रान्स और रूस के साहित्य
मे जितनी उच्च-कोटि की गल्पे पायी जाती है, उतनी अन्य योरपीय
भाषाओ मे नही । अगरेजी में भी डिकेस, वेल्स, हार्डी, किल्लिङ्ग, शालेंट
ब्राटी आदि ने कहानियाँ लिखी है, लेकिन इनकी रचनाएँ गी द
भोपासा, बालजक या पियेर लोती के टक्कर की नहीं । फ्रान्सीसी कहा-
नियो मे सरसता की मात्रा बहुत अधिक रहती है । इसके अतिरिक्त