मोपासों और बालजक ने आख्यायिका के आदर्श को हाथ से नहीं जाने
दिया है। उनमे आध्यात्मिक या सामाजिक गुत्थियों अवश्य सुलझायी
गयी है । रूस मे सबसे उत्तम कहानियाँ काउंट टालस्टाय की है । इनमे
कई तो ऐसी है, जो प्राचीन काल के दृष्टान्तो की कोटि की है । चेकाफ
ने बहुत कहानियाँ लिखी है, और योरप मे उनका प्रचार भी बहुत है;
किन्तु उनमे रूस के विलास प्रिय समाज के जीवन-चित्रों के सिवा और
कोई विशेषता नही । डास्टावेस्की ने भी उपन्यासो के अतिरिक्त कहानियाँ
लिखी है, पर उनमे मनोभावो की दुर्बलता दिखाने ही की चेष्टा की
गयी है । भारत मे बंकिमचन्द्र और डाक्टर रवीन्द्रनाथ ने कहानियाँ लिखी
हैं, और उनमे से कितनी ही बहुत उच्च-कोटि की है।
प्रश्न यह हो सकता है कि आख्यायिका और उपन्यास मे आकार
के अतिरिक्त और भी कोई अन्तर है ? हॉ, है और बहुत बड़ा अन्तर
है । उपन्यास घटनाओं, पात्रों और चरित्रों का समूह है, आख्यायिका
केवल एक घटना है-अन्य बाते सब उसी घटना के अन्तर्गत होती है।
इस विचार से उसकी तुलना ड्रामा से की जा सकती है । उपन्यास मे
आप चाहे जितने स्थान लाये, चाहे जितने दृश्य दिखाये, चाहे जितने
चरित्र खींचें, पर यह कोई आवश्यक बात नहीं कि वे सब घटनाएँ और
चरित्र एक ही केन्द्र पर मिल जाये । उनमे कितने ही चरित्र तो केवल
मनोभाव दिखाने के लिए ही रहते हैं, पर आख्यायिका मे इस बाहुल्य
की गुञ्जाइश नहीं, बल्कि कई सुविज्ञ जनो की सम्मति तो यह है कि
उसमे केवल एक ही घटना या चरित्र का उल्लेख होना चाहिए । उप-
न्यास मे आपकी कलम मे जितनी शक्ति हो उतना जोर दिखाइये,
राजनीति पर तर्क कीजिए, किसी महफिल के वर्णन मे दस-बीस पृष्ठ
लिख डालिये; (भाषा सरस होनी चाहिए ) ये कोई दूषण नहीं ।
श्राख्यायिका मे श्राप महफिल के सामने से चले जायेंगे, और बहुत
उत्सुक होने पर भी आप उसकी ओर निगाह नही उठा सकते । वहाँ तो
एक शब्द, एक वाक्य भी ऐसा न होना चाहिए, जो गल्प के उद्देश्य को