चना किया करता है-अपने ही मनोरहस्य खोला करता है । मानव-
सस्कृति का विकास ही इसलिए हुअा है कि मनुष्य अपने को समझे ।
अध्यात्म और दर्शन की भॉति साहित्य भी इसी सत्य की खोज मे
लगा हुआ है-अन्तर इतना ही है कि वह इस उद्योग मे रस का
मिश्रण करके उसे अानन्दप्रद बना देता है, इसीलिए अध्यात्म और
दर्शन केवल ज्ञानियों के लिए है, साहित्य मनुष्य-मात्र के लिए ।
जैसा हम ऊपर कह चुके है, कहानी या आख्यायिका साहित्य का एक प्रधान अग है, आज से नही, आदि काल से ही । हाँ, आजकल की आख्यायिका और प्राचीन काल की आख्यायिका मे समय की गति और रुचि के परिवर्तन से, बहुत-कुछ अन्तर हो गया है। प्राचीन आख्यायिका कुतूहल-प्रधान होती थी या अध्यात्म-विषयक । उपनिषद् और महाभारत मे आध्यात्मिक रहस्यों को समझाने के लिए आख्या- यिकात्रो का आश्रय लिया गया है । बौद्ध-जातक भी आख्यायिका को सिवा और क्या है ? बाइबिल मे भी दृष्टान्तो और आख्यायिकानो के द्वार ही धर्म के तत्व समझाये गये हैं। सत्य इस रूप मे श्राकर साकार हो जाता है और तभी जनता उसे समझती है और उसका व्यवहार करती है।
वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है । उसमे कल्पना की मात्रा कम और अनुभूतियो की मात्रा अधिक होती है। इतना ही नहीं बल्कि अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुरञ्जित होकर कहानी बन जाती है।
मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र
है । यथार्थ जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है; मगर कहानी
के पात्रो के सुख-दुःख से हम जितना प्रभावित होते है, उतना यथार्थ
जीवन से नहीं होते-जब तक वह निजत्व की परिधि मे न आ जाय ।
कहानियों मे पात्रो से हमे एक ही दो मिनट के परिचय मे निजत्व हो