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सहित्य का उदेश्य


जाता है और हम उनके साथ हॅसने और रोने लगते है। उनका हर्ष और विषाद हमारा अपना हर्ष और विषाद हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि कहानी पढ़कर वे लोग भी रोते या हॅसते देखे जाते है, जिन पर साधारणतः सुख-दुःख का कोई असर नही पडता । जिनकी ऑखे श्मशान मे या कब्रिस्तान मे भी सजल नहीं होतीं, वे लोग भी उपन्यास के मर्म- स्पर्शी स्थलो पर पहुँचकर रोने लगते है ।

शायद इसका यह भी कारण हो कि स्थूल प्राणी सूक्ष्म मन के उतने समीप नहीं पहुँच सकते, जितने कि कथा के सूक्ष्म चरित्र के । कथा के चरित्रो और मन के बीच मे जड़ता का वह पर्दा नहीं होता, जो एक मनुष्य के हृदय को दूसरे मनुष्य के हृदय से दूर रखता है और अगर हम यथार्थ को हूबहू खींचकर रख दे, तो उसमे कला कहाँ है ? कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है।

कला दीखती तो यथार्थ है; पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो । उसका माप- दण्ड भी जीवन के माप-दण्ड से अलग है। जीवन मे बहुधा हमारा अन्त उस समय हो जाता है जब यह वाछनीय नहीं होता । जीवन किसी का दायी नही है; उसके सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण मे कोई क्रम, कोई सम्बन्ध नहीं ज्ञात होता–कम से कम मनुष्य के लिए वह अज्ञेय है । लेकिन कथा-साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत् है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है, और जहाँ वह हमारी मानवी न्याय बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कथा मे अगर किसी को सुख प्राप्त होता है तो इसका कारण बताना होगा, दुख भी मिलता है तो उसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक कि मानव-न्यायबुद्धि उसकी मौत न मोंगे। स्रष्टा को जनता की अदालत मे अपनी हर एक कृति के लिए जवाब