पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३
कहानी-कला

देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है, जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो ।

हमे यह स्वीकार कर लेने मे सकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पच्छिम से ली है-कम-से- कम इसका आज का विकसित रूप तो पच्छिम का है ही। अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराप्रो की तरह ही साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गयी और हमने प्राचीन से जौ-भर भी इधर-उधर हटना निषिद्ध समझ लिया। साहित्य के लिए प्राचीनो ने जो मर्यादाएँ बाँध दी थीं, उनका उल्लंघन करना वर्जित था । अतएव, काव्य, नाटक, कथा, किसी मे भी हम आगे कदम न बढ़ा सके । कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमे कुछ नवीनता न लायी जाय । एक ही तरह के नाटक, एक ही तरह के काव्य पढते-पढते आदमी ऊब जाता है और वह कोई नयी चीज चाहता है-चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो । हमारे यहाँ या तो यह इच्छा उठी ही नहीं, या हमने उसे इतना कुचला कि वह जड़ीभूत हो गयी। पश्चिम प्रगति करता रहा-उसे नवीनता की भूख थी, मर्यादाओं की बेडियों से चिढ़ । जीवन के हर एक विभाग मे उसकी इस अस्थिरता तथा असन्तोष की बेडियो से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है । साहित्य मे भी उसने क्रान्ति मचा दी।

शेक्सपियर के नाटक अनुपम है; पर आज उन नाटकों का जनता के जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं । अाज के नाटक का उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है । कथा- साहित्य मे भी विकास हुआ और उसके विषय मे चाहे उतना बड़ा परि- वर्तन न हुआ हो; पर शैली तो बिलकुल ही बदल गयी । अलिफलैला उस वक्त का आदर्श था उसमे बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कुतूहल था, रोमान्स था—पर उसमे जीवन की समस्याएँ न थी, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन अपने सत्य-