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कहानी-कला

तो कडी डॉट पड़ती थी। यह ख्याल किया जाता था कि किस्सो से चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। अोर उन 'फिसाना अजायब' और 'शुक- बहत्तरी' और 'ताता-मैना' के दिनो मे ऐसा ख्याल होना स्वाभाविक ही था। उस वक्त कहानियों कही स्कूल कैरिकुलम मे रख दो जाती, तो शायद पिताश्रा का एक डेपुटेशन इसके विरोध मे शिक्षा-विभाग के अध्यक्ष को सेवा मे पहुँचता । आज छोटे-बड़े सभी क्लासो मे कहानियाँ पढायी जाती है और परोक्षाओ मे उन पर प्रश्न किये जाते है। यह मान लिया गया है कि सास्कृतिक विकास के लिए सरस साहित्य से उत्तम कोई साधन नहीं है । अब लाग यह भी स्वीकार करने लगे है कि कहानी कोरी गप नही है, और उसे मिथ्या समझना भूल है। आज से दो हजार बरस पहले यूनान के विख्यात फिलासफर अफलातूं ने कहा था कि हर एक काल्पनिक रचना मे मौलिक सत्य मौजूद रहता है । रामायण, महा- भारत आज भी उतने ही सत्य है, जितने अाज से पाँच हजार साल पहले थे, हालॉ कि इतिहास, विज्ञान और दर्शन मे सदैव परिवर्तन होते रहते है । कितने ही सिद्धान्त, जो एक जमाने मे सत्य समझे जाते थे, अाज असत्य सिद्ध हो गये हैं, पर कथाएँ अाज भी उतनी ही सत्य हैं, क्योकि उनका सम्बन्ध मनोभावो से है और मनोभावों मे कभी परिवर्तन नहो होता । किसी ने बहुत ठीक कहा है, कि कहानो मे नाम और सन् के सिवा और सब कुछ सत्य है; और इतिहास मे नाम और सन् के सिवा कुछ भी सत्य नही। गल्पकार अपनी रचनात्रो को जिस साँचे मे चाहे ढाल सकता है: पर किसो दशा मे भी वह उस महान् सत्य की अवहेलना नहीं कर सकता, जो जीवन सत्य कहलाता है।