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जड़वाद और आत्मवाद


सृष्टि की महानता के सामने कोई चीज नहीं है, और इस गहराई में जितना ही उतरते हैं, उतनी ही उसकी अनन्तता और विशालता भी गहरी हो जाती है। तब से विद्वानों का अभिमान कुछ ठंडा पड़ने लगा है। उन्हें स्पष्ट नजर आने लगा है कि जड़वाद से सृष्टि की सारी गुत्थियाँ नही सुलझतीं, बल्कि जितनी सुलझाना चाहो, उतनी ही और उलझती जाती हैं। तो कम से कम कुछ दिनों के लिए तो जड़वाद का झंडा नीचा हो ही गया। जब आइंस्टीन से कोई बड़ा विद्वान आकर आइंस्टीन के सिद्धान्त को मिथ्या सिद्ध कर देगा, तो सम्भव है, जड़वाद फिर ताल ठोकने लगे। और यह झगड़ा हमेशा चलता रहेगा। जिन्हें इन झगड़ो में पड़े रहने से सारी दैहिक और पारिवारिक जरूरतें पूरी हो जाती हैं, उनके लिए बड़ा अच्छा मशगला है। हमारे लिए ईश्वर का अस्तित्व मनवाने को अकेली यह पृथ्वी काफी थी। आजकल का खगोल जब तीन करोड़ ऐसे ही विशाल सौर परिवारों का पता लगा चुका और बीस लाख सूर्य तो दूरबीनों से नजर आने लगे हैं और यह अनन्त पहले से कई लाख या करोड़ गुना अनन्त हो गया है, और एलेक्ट्रान और तरह तरह की अद्भुत किरणें हमारे सामने आ गई हैं, तो हमारी अक्ल का घनचक्कर हो जाना बिलकुल स्वाभाविक है। जो लोग इस पुरानी सृष्टि को समीप समझकर ईश्वर को जरा अपने से बड़ा मस्तिष्क समझ रहे थे, उनके लिए नये नये पिंड समूहों का निकलना और नये नये रहस्यों का प्रगट होना जरूर खतरे की बात है, और दस पाँच साल तक उन्हें खामोशी से महान् आत्मा को स्वीकार कर लेना चाहिए।

हमारे जैसे साधारण कोटि के मनुष्यों के लिए तो ईश्वर का अस्तित्व कभी विवाद का विषय हो ही नहीं सकता। विवाद का विषय केवल यह है कि वह दुनियाबी मामलों में कुछ दिलचस्पी लेता है या नहीं। एक दल तो कहता है, और इस दल मे बड़े बड़े लोग शामिल हैं, कि बिना उसकी मर्जी के पत्ती भी नहीं हिलती और वह सुख-दुःख, जीवन-मरण, स्वर्ग-नरक की व्यवस्था करता रहता है, और एक अनुत्तर-

फा॰ ६