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साहित्य का उद्देश्य


दायी राजा की भाँति संसार पर शासन करता है। क्या मजाल कि कोई किसी भाई को या जीव को कष्ट देकर बच जाय। उसे दंड मिलेगा और अवश्य मिलेगा। इस जन्म में न मिला न सही, अगले जन्म में पाई पाई चुका ली जायगी। दूसरा दल कहता है कि नहीं, ईश्वर ने संसार को बनाकर उसे पूर्ण स्वराज्य दे दिया है। डोमिनियन स्टेटस का वह कायल नहीं। उसने तो पूर्ण से भी कहीं पूर्ण स्वराज्य दे दिया है। मनुष्य जो चाहे करे, उसे मतलब नहीं। उसने जो नियम बना दिया है, उनकी पकड़ में आ जायगा तो तत्काल मजा चखना पड़ेगा और कायदे के अन्दर चले जाओ, तो उसकी फोज और उसके मन्त्री और कर्मचारी साँस भी न लेंगे। एक दल दूसरे दल पर अमानुषिक अत्याचार करे, ईश्वर से कोई मतलब नहीं। उसने कानून बना दिया है कि जो शक्ति संग्रह करेगा वह बलवान होगा और बलवान हमेशा निर्बलों पर शासन करता है। शक्ति कैसे संग्रह की जाती है, इसके साधन मनुष्य ने अनुभव से प्राप्त किये हैं, कुछ शास्त्र और विज्ञान से सीखा है। जो पुरुषार्थी और कर्मण्य हैं, उनकी विजय है, और जो दुर्बल हैं, उनकी हार है। ईश्वर को इसमें कोई दखल नहीं। मनुष्य लाख प्रार्थना करे, लाख स्तुति गाये, लाख जप तप करे, कोई फायदा नहीं। यहाँ एक राष्ट्र और एक समाज दूसरे राष्ट्र या समाज को पीसकर पी जाय, ईश्वर की बला से। और यह नृसिंह और प्रभु 'अब काहे नाही सुनत हमारी टेर' वाली बातें केवल अपनी नपुंसकता की दलीलें हैं। हमने तो मोटी सी बात समझ ली है कि ईश्वर रोम-रोम में, अणु-अणु में व्यात है। मगर उसी तरह जैसे हमारी देह में प्राण है। उसका काम केवल शक्ति और जीवन दे देना है। उस शक्ति से हम जो काम चाहें, लें, यह हमारी इच्छा पर है। यह मनुष्य की हिमाकत या अभिमान है कि वह अपने को अन्य जीवों से ऊँचा समझता है। वृक्ष और खटमल भी जीव हैं। वृक्ष को हम लगाते हैं, लग जाता है, काटते हैं, कट जाता है। खटमल हमें काटता है, हम उसे मारते हैं, हमे न काटे, तो