सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८६
संग्राम का साहित्य

'तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो?'

'नहीं, मै आपके मुंह का कलक मिटाना चाहती हूँ।'

'मैं कहता हूँ, हट जाअो । पति का विरोध करना स्त्रियों का धर्म नहीं है । तुम क्या अनर्थ कर रही हो, यह तुम नहीं समझ सकतीं ।'

'मैं यहाँ आपकी पत्नी नहीं हूँ। देश की सेविका हूँ। यहाँ मेरा कर्तव्य यही है, जो मैं कर रही हूँ। घर मे मेरा धर्म आपकी आज्ञाओं को मानना था । यहाँ मेरा धर्म देश की आज्ञा को मानना है।'

हीरामलजी ने धमकी भी दी, मिन्नते भो की पर रमणी द्वार से न हटी। आख़िर पति को लज्जित होकर लौटना पड़ा । उसी दिन उनका स्वदेशी संस्कार हुआ।

पॉचवीं घटना उन गढ़वाली वीरों की है, जिन्होंने पेशावर के सत्या- अहियो पर गोली चलाने से इनकार किया। शायद हमारी सरकार को पहली बार राष्ट्रीय आन्दोलन की महत्ता का बोध हुआ । वह गोरखे जिन्हे हम लोग पशु समझते थे, जिनकी राज-भक्ति पर सरकार को अटल विश्वास था, जिनमे राष्ट्रीय भावों की जाग्रति की कोई कल्पना भी न कर सकता था, उन्हीं गोरखे योद्धाओ ने निःशस्त्र सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया । उन्हे खूब मालूम था, कि इसका नतीजा कोर्टमार्शल होगा, हमे काले पानी भेजा जायगा, फासियों दी जायेंगी, शायद गोली मार दी जाय; पर यह जानते हुए भी उन्होने गोली चलाने से इनकार किया! कितना आसान था गोली चला देना। राइफल के घोडे को दबाने की देर थी। पर धर्म ने उनकी उँगलियो को बाँध दिया था। धर्म की वेदी पर इतने बडे बलिदान का उदाहरण ससार के इतिहास मे बहुत कम मिलेगा।

---