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साहित्य में समालोचना


नहीं मिलता।न कोई ऐसे व्यक्ति है,न समिति,न मडल। केवल पुस्तक- प्रकाशको की पसन्द का भरोसा है। उसने रचना स्वीकार कर ली, तो खैर, नहीं सारी की-कराई मेहनत पर पानी फिर गया। प्रेरक शक्तियो मे यशोलिप्सा शायद सबसे बलवान है। जब यह उद्देश्य भी पूरा नहीं होता, तो लेखक कधा डाल देता है और इस भॉति न जाने कितने गुदडी के रत्न छिपे रह जाते है । या फिर वह प्रकाशक महोदय के आदेशानुसार लिखना शुरू करता है और इस तरह कोई नियन्त्रण न होने के कारण, साहित्य मे कुरुचि बढती जाती है । इस तरफ जैनेन्द्रकुमारजी की 'परख', प्रसादजी का 'कंकाल', प्रतापनारायणजी की 'विदा', निरालाजी की 'अप्सरा', वृन्दावनलालजी का 'गढ़कुण्डार' आदि कई सुन्दर रचनाये प्रकाशित हुई है । मगर इनमे से एक की भी गहरी, व्यापक, तात्त्विक अालोचना नही निकली । जिन महानुभावो मे ऐसी आलोचना की सामर्थ्य थी, उन्हे शायद इन पुस्तको की खबर भी नहीं हुई। इनसे कहीं घटिया किताबे अग्रेजी मे निकलती रहती है और उन्हे ऊँची बिरादरीवाले सजन शौक से पढ़ते और संग्रह करते है; पर इन रत्नो की ओर किसी का ध्यान आकृष्ट न हुआ। प्रशंसा न करते, दोष तो दिखा देते, ताकि इनके लेखक आगे के लिये सचेत हो जाते, पर शायद इसे भी वे अपने लिये जलील समझते है। इङ्गलैण्ड का रामजे मैकेडानेल्ड या बौनर ला अग्रेजी साहित्य पर प्रकाश डालनेवाला व्याख्यान दे सकता है, पर हमारे नेता खद्दर पहनकर अंग्रेज़ी लिखने और बोलने में अपना गौरव समझते हुए, हिन्दी-साहित्य का अलिफ़ बे भी नहीं जानते । यह इसी उदासीनता का नतीजा है, कि 'विजयी। विश्व तिरंगा प्यारा' जैसा भावशून्य गीत हमारे राष्ट्रीय जीवन मे इतना प्रचार पा रहा है। 'वन्देमातरम्' को यदि 'विजयी विश्व' के मुकाबले में रखकर देखिए, तो आपको विदित होगा कि आपकी लापरवाही ने हिन्दी-साहित्य को आदर्श से कितना नीचे गिरा दिया है । जहाँ अच्छी चीज़ की कद्र करने वाले और परखने वाले नहीं है वहाँ नकली, घटिया, जटियल चीजें ही बाज़ार में आवे, तो कोई